Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 113
________________ 100 वस्तुविज्ञानसार यहाँ ज्ञान का परलक्ष्यी क्षयोपशम अथवा कषाय की मन्दता पर वजन नहीं है किन्तु दर्शनविशुद्धि पर ही सम्पूर्ण वजन है। . जिस प्रकार किसी से सलाह पूछी और उसके कथन को ध्यान में भी रखा, परन्तु उसके अनुसार परिणमन नहीं किया; इसी प्रकार शास्त्र के कथन से यह तो जान लिया कि निश्चय के आश्रय से मुक्ति और व्यवहार के आश्रय से बन्ध होता है, इस प्रकार उस सलाह को ध्यान में लेकर भी उसरूप परिणमन नहीं किया; शास्त्रकथित दोनों पहलुओं को ध्यान में तो लिया परन्तु रुचि तो राग में ही रखी, तब सम्यग्दर्शन कहाँ से होगा? उसे दिव्यध्वनि का कथन तो ध्यान में आ जाता है कि भगवान ऐसा कहते हैं किन्तु उस ओर वह रुचि नहीं करता। क्षयोपशमभाव से मात्र धारणा करता है, परन्तु वह यथार्थतः रुचि से नहीं समझता। यदि यथार्थतः रुचि से समझे तो सम्यग्दर्शन हुए बिना नहीं रहे। स्वभाव की बात राग से भिन्न होती है। जो जीव, स्वभाव की रुचि के साथ स्वभाव की बात सुनता है, वह उस समय राग से आंशिक भिन्न होकर सुनता है। यदि स्वभाव की बात सुनते-सुनते उकता जाए अथवा यह विचार आये कि यह तो कठिन मार्ग है, इस प्रकार स्वभाव की ओर अरुचि हो तो समझना चाहिए कि उसे स्वभाव की अरुचि और राग की रुचि है, क्योंकि वह यह मानता है कि राग में मेरा वीर्य काम कर सकता है; रागरहित स्वभाव में नहीं कर सकता – यह भी व्यवहार का ही पक्ष है। स्वभाव की बात सुनकर, उसकी महिमा लाकर, स्वभाव की ओर वीर्य का उल्लास इस प्रकार होना चाहिए कि 'अहो! यह तो

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