Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 122
________________ वस्तु के सामान्य-विशेषरूप... 109 करता है। शब्द को, रूप को या किसी को भी जानने के लिए ज्ञान एक ही है, ज्ञान में कोई अन्तर नहीं हो जाता। आत्मा का ज्ञानस्वभाव स्वयमेव है, वह किसी के निमित्त से नहीं है। आत्मा का जो त्रैकालिक ज्ञानस्वभाव है, वह अपने आप ही विशेषरूप कार्य करता है। आत्मा इन्द्रियों से जानता ही नहीं, वह अपने ज्ञान की विशेष अवस्था से ही जानता है। सामान्यज्ञान स्वयं परिणमन करके विशेषरूप होता है, वह जानने का कार्य करता है। यह मानना अधर्म है कि ज्ञान दूसरे के अवलम्बन से जानता है। ज्ञान, स्वभावालम्बन से जानता है - ऐसी श्रद्धा, ज्ञान और स्थिरता धर्म है। ___ यहाँ, परावलम्बनरहित ज्ञान की स्वाधीनता बताई गयी है, यह जयधवला शास्त्र की विशेषता है। इसमें और भी अनेक बातें हैं, जिसमें से यह एक विशेष है। मेरे ज्ञान का परिणामरूप / विशेष व्यापार (उपयोग) मेरे द्वारा होता है, उसे किसी दूसरे निमित्त की या परद्रव्य की आवश्यकता नहीं है; इसलिए वह ज्ञान स्वयं समाधान और सुखस्वरूप है। ज्ञान, स्वाधीन स्वभाव होने से ही निगोद से लेकर सिद्ध जीवों तक सबको ज्ञान होता है परन्तु जैसा हो रहा है, वैसा अज्ञानी नहीं मानता और अपना ज्ञान पर से मानता है; इसलिए उसकी मान्यता में विरोध आता है। - सभी जीवों का ज्ञानस्वभाव है, उस ज्ञान का विशेष कार्य अपने स्वभाव के अवलम्बन से ही होता है; इसलिए ज्ञान, राग या पर निमित्त के अवलम्बन के बिना ही कार्य करता है; अत: ज्ञान, राग या संयोग से रहित है।

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