Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 124
________________ वस्तु के सामान्य-विशेषरूप..... 111 है परन्तु वह किसी को अपना नहीं मानता; ज्ञान का ऐसा स्वभाव है। जो विकार को अथवा पर को अपना नहीं मानता, उसे दुःख नहीं होता। मेरे ज्ञान को कोई परावलम्बन नहीं है - ऐसे स्वाधीन स्वभाव की श्रद्धा, ज्ञान और स्थिरता करे तो उस स्वभाव में शङ्का या दुःख हो ही नहीं सकता। इसका कारण यह है कि ज्ञानस्वभाव स्वयं सुखरूप है। कोई भी जीव, इन्द्रियों से नहीं जानता। जिसे सबसे अल्पज्ञान है - ऐसा निगोदिया जीव भी स्पर्शन इन्द्रिय से नहीं जानता, किन्तु वह अपने सामान्यज्ञान के परिणमन से होनेवाले विशेषज्ञान के द्वारा जानता है किन्तु वह ऐसा मानता है कि मुझे इन्द्रिय से ज्ञान हुआ है। जब जीव को सामान्य ज्ञानस्वभाव के अवलम्बन से अर्थात् सामान्य की ओर एकाग्रता होने से विशेषज्ञान होता है, तब वह सम्यक् मतिरूप होता है और उस मतिज्ञानरूप अंश में बिना परावलम्बन ज्ञानस्वभाव की पूर्णता की प्रतीति आती है। आत्मा का ज्ञानस्वभाव किसी संयोग के कारण से नहीं है; यदि ऐसे स्वाधीन ज्ञानस्वभाव को न जाने तो धर्म नहीं होता। धर्म कहीं बाह्य में नहीं है किन्तु अपना ज्ञानानन्दस्वभाव ही धर्म है; इसमें तो समस्त शास्त्रों का रहस्य आ जाता है। यह बात भी इसमें आ गयी कि कोई किसी का कुछ भी करने को समर्थ नहीं है। जड़-इन्द्रियाँ, आत्मा के ज्ञान की अवस्था नहीं करती और आत्मा का ज्ञान, पर का कुछ नहीं करता, इस प्रकार ज्ञानस्वभाव की स्वतन्त्रता सिद्ध हो गई। सभी सम्यक् मतिज्ञानियों का ज्ञान, निमित्त के अवलम्बन बिना सामान्य स्वभाव के अवलम्बन से कार्य करता है, इसलिए सर्व निमित्तों के अभाव में, सम्पूर्ण असहाय होकर, सामान्यस्वभाव के

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