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अज्ञानी को व्यवहार का सूक्ष्म....
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मेरा ही स्वरूप बतला रहे हैं किन्तु यदि ऐसा माने कि 'यह काम मुझसे नहीं होगा' तो समझना चाहिए कि वह राग के चक्कर में पड़ गया है, राग से पृथक् नहीं हुआ है।
हे भाई! यदि तूने यह माना कि तुझसे राग का कार्य हो सकता है, किन्तु राग से अलग होकर रागरहित ज्ञान का कार्य, जो कि तेरा स्वभाव ही है, तुझसे नहीं हो सकता तो समझना चाहिए कि त्रैकालिक स्वभाव की अरुचि होने से तुझे सूक्ष्मरूप में राग के प्रति मिठास है; व्यवहार की पकड़ है और यही कारण है कि सम्यग्दर्शन नहीं होता।
जहाँ रागरहित ज्ञायकस्वभाव की बात आये, वहाँ यदि जीव को ऐसा लगे कि यह काम कैसे होगा?' तो समझना चाहिए कि उसका वीर्य व्यवहार में अटक गया है, उसे स्वभाव की दृष्टि नहीं है। ज्ञानस्वभाव सूक्ष्म है, उसकी मिठास छूटी कि राग की मिठास आ गयी। वह जीव अभी निश्चयस्वभाव की अपूर्व बात को नहीं समझा और उसे किसी न किसी प्रकार से व्यवहार की रुचि रह गयी है।
पण्डित जयचन्द्रजी श्री समयप्राभृत में कहते हैं कि 'प्राणियों को भेदरूप व्यवहार का पक्ष तो अनादिकाल से ही विद्यमान है और इसका उपदेश भी बहुधा सभी प्राणी परस्पर करते हैं तथा जिनवाणी में शुद्धनय का हस्तावलम्बन समझ कर व्यवहार का उपदेश बहुत किया है, किन्तु इसका फल संसार ही है। शुद्धनय का पक्ष कभी नहीं आया और इसका उपदेश भी विरल है, क्वचित्-क्वचित् है; इसलिए उपकारी श्रीगुरु ने शुद्धनय के ग्रहण का फल मोक्ष जानकर उसका उपदेश प्रधानता से दिया है कि 'शुद्धनय भूतार्थ है, सत्यार्थ