Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 116
________________ अज्ञानी को व्यवहार का सूक्ष्म.... 103 कि जो सच्चे निमित्तों की ओर झुकता है, उसे स्वभाव का विवेक होता ही है; नियम तो यह है कि जो निश्चयस्वभाव का आश्रय लेता है, उसे सम्यग्दर्शन अवश्य होता है; इसीलिए निश्चयनय से आश्रय से व्यवहारनय का निषेध है। . शास्त्र की ओर के विकल्प से जो ज्ञान है, वह व्यवहार है। उस ज्ञान की ओर से वीर्य को हटाकर, उसे स्वभाव की ओर मोड़ा जाता है। सत् निमित्त की ओर के भाव से जैसा पुण्यबन्ध होता है, वैसा पुण्य अन्य निमित्तों की ओर के झुकाव से नहीं बँधता। तात्पर्य यह है कि यद्यपि लोकोत्तर पुण्य भी सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के विकल्प से होता है किन्तु वह भी पर की ओर सन्मुख है, निश्चयस्वभाव की ओर सन्मुख नहीं है; इसलिए उसका निषेध है। जैसे पागल मनुष्य का ज्ञान / निर्णय हीन होता है, इसलिए उसका माता को माता कहना भी अयथार्थ है; इसी प्रकार अज्ञानी का स्वभाव की ओर का निर्णयरहित ज्ञान दोषित हुए बिना नहीं रह सकता। सर्वज्ञ भगवान के कथन की ओर जो झुकाव है, वह भी व्यवहार की ओर का झुकाव है। वीतराग शासन में कथित जीवादि नव तत्त्वों की विकल्प से जो श्रद्धा है, वह भी पुण्य का कारण है क्योंकि उसमें भेद का और पर का लक्ष्य है और परलक्ष्य धर्म का कारण नहीं है। जिस जीव के निमित्त तो अविरुद्ध है किन्तु निमित्त की ओर से हटकर अभी स्वभाव की ओर नहीं झुका है, उसे भी निश्चय सम्यग्दर्शन नहीं है। आचाराङ्ग इत्यादि सच्चे शास्त्र, जीवाजीवादिक नव तत्त्वों का स्वरूप और एकेन्द्रिय आदि छह जीवनिकायों का प्रतिपादन वीतराग

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