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वस्तुविज्ञानसार
जिसे व्यवहार का पक्ष है, वह जीव एकान्त व्यवहार की ओर ढल जाता है; इसलिए वह निश्चयस्वभाव का तिरस्कार करता है। मात्र वर्तमान की अर्थात् पर्याय की ओर की उन्मुखता में इतना अधिक बल नहीं है कि वह विकल्प को तोड़कर स्वभाव का दर्शन करा दे। यदि दृष्टि में निश्चयस्वभाव पर वजन नहीं दे तो व्यवहार को गौण करके स्वभाव की ओर नहीं झुक सकता और सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता। यदि जीव, वर्तमान में होनेवाले विकारभाव की दृष्टि छोड़कर स्वभाव की ओर बल को लगाये तो अवस्था में स्वभावरूप कार्य होता है। जब ज्ञान और वीर्य, स्वभाव की ओर ढलते हैं, तब उसमें निश्चय की मुख्यता हुई और रागादि विकल्प को जानकर भी उसे मुख्य नहीं किया; यही व्यवहारनय का निषेध है। वहाँ भी व्यवहार का ज्ञान है किन्तु आदर नहीं है।
ज्ञान और वीर्य के बल से स्वभाव की जो मुख्यता होती है, उस मुख्यता का बल वीतरागता और केवलज्ञान होने तक बना रहता है; बीच में भले ही व्यवहार आये, किन्तु कभी भी उसकी मुख्यता नहीं होती। छठवें गुणस्थान तक राग रहेगा, तथापि दृष्टि में कभी भी राग की मुख्यता नहीं होगी। त्रैकालिक स्वभाव ही मुख्य है अर्थात् दृष्टि के बल से वह निश्चयस्वभाव की ओर ढलते-ढलते और रागरूप व्यवहार को तोड़ते-तोड़ते सम्पूर्ण वीतरागता और केवलज्ञान हो जाएगा। केवलज्ञान होने के बाद सम्पूर्ण नयपक्ष का ज्ञाता होने से
और राग न होने से वहाँ न कोई मुख्य रहता है और न गौण; और न कोई विकल्प ही रहता है। वहाँ तो साध्य की सिद्धि हो चुकी है।
नव तत्त्वों की व्यवहार श्रद्धा और ग्यारह अङ्ग का ज्ञान होने पर