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वस्तुविज्ञानसार
परिणाम ही मैं हूँ और इसी से मुझे लाभ है', इस प्रकार वर्तमान राग पर ही लक्ष्य को स्थिर करके उसमें अटक रहा है और त्रैकालिक एकरूप निरपेक्ष स्वभाव की ओर नहीं ढलता; इसीलिए मिथ्यात्व रह जाता है ।
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यदि जीव वर्तमान राग का लक्ष्य छोड़कर, त्रैकालिक शुद्ध स्वभाव को लक्ष्य में ले तो सम्यग्दृष्टि होता है, क्योंकि सम्यग्दर्शन का आधार (आश्रयभूतवस्तु) त्रैकालिक स्वभाव है, वर्तमान पर्याय के आश्रय से सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं होता ।
निश्चय - अखण्ड अभेद स्वभाव की ओर जाते हुए बीच में जो विकल्पादिरूप व्यवहार आता है, उसके लिये खेद (अर्थात् हेयबुद्धि) होना चाहिए - ऐसा न करके जो उसके प्रति उत्साहित होता है, उसे स्वभाव के प्रति आदर नहीं रहता अर्थात् वह मिथ्यात्वी ही रहता है । निश्चयस्वभाव की ओर के वीर्य का उल्लास होने के बदले व्यवहार में जिसका वीर्य उल्लसित होता है, उसका भाव परावलम्बी रहता है; इसलिए उसके व्यवहार का पक्ष दूर नहीं होता । व्यवहार की रुचिवाला वह जीव, भगवान की दिव्यध्वनि का उपदेश सुनकर भी व्यवहार की रुचि को ही पुष्ट करता है । निश्चय के आश्रय का उल्लास न होने से व्यवहार की रुचि करता है कि 'व्यवहार तो बीच में आयेगा ही।' इस प्रकार मिथ्यदृष्टि के व्यवहार की गहरी, सूक्ष्म मिठास विद्यमान रहती है; इसलिए वह अपने स्वभाव में उल्लसित होकर सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता ।
प्रश्न- व्यवहार का निषेध करने से एकान्त निश्चय नहीं हो जाएगी क्या ?