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क्रिया के तीन प्रकार
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संसार की घातक है, सुख देनेवाली और दु:ख दूर करनेवाली है।
विकारी क्रिया या अविकारी क्रिया दोनों एक समयमात्र की जीव की अवस्था हैं किन्तु उन दोनों के लक्ष्य में अन्तर है। अविकारी क्रिया का लक्ष्य त्रिकाली शुद्धस्वभाव है और विकारी क्रिया का लक्ष्य पर में तथा पुण्य-पाप में है। जड़ का कार्य करने की बात दोनों में से एक भी क्रिया में नहीं है; जड़ की क्रिया इन दोनों से अलग स्वतन्त्र है, उससे न तो बन्ध होता है और न मुक्ति।।
मोक्ष किसके लक्ष्य से होता है ? तीन प्रकार की क्रियाओं में से किस क्रिया से मोक्ष होता है? क्या जड़ के लक्ष्य से मोक्ष होता है? नहीं। पुण्य-पाप के लक्ष्य से? नहीं। आत्मा में परद्रव्य का त्याग या ग्रहण नहीं होता, इसलिए उसके लक्ष्य से मोक्ष नहीं होता। जो पुण्य -पाप होते हैं, वे भी परलक्ष्य से होते हैं; इसलिए विकार हैं, उनके लक्ष्य से मोक्ष नहीं होता। तात्पर्य यह है कि जड़ की क्रिया से और विकारी क्रिया से मोक्ष नहीं होता। जड़ की क्रिया का बाह्य संयोग होने पर भी और पर्याय में क्षणिक राग-द्वेष होने पर भी, मैं इस जड़ से भिन्न हूँ और मेरे शुद्ध ज्ञानभाव में राग-द्वेष नहीं हैं - ऐसा भेदज्ञान होना धर्म की प्रारम्भिक क्रिया है; पश्चात् शुद्ध ज्ञाताभाव में स्थिरता करने पर राग-द्वेष दूर होते जाते हैं; वह चारित्र की क्रिया है। इस प्रकार धर्म की क्रिया से बल से विकार की क्रिया का नाश होता है। .. धर्म की क्रिया शरीर में होती है या आत्मा में? जिसकी भूमिका में धर्म की क्रिया होती है - ऐसे आत्मस्वभाव का जिसे पता नहीं है, वह धर्म की क्रिया कहाँ करेगा? इसलिए सर्व प्रथम आत्मस्वरूप को समझना चाहिए। यही प्रारम्भिक धर्म की क्रिया है, इसके बिना धर्म की कोई क्रिया नहीं होती।