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वस्तुविज्ञानसार
तो वह जीव सदा निमित्त की ओर ही देखा करेगा अर्थात् उसकी दृष्टि बाहर में ही रहा करेगी और वह पर की उपेक्षा करके स्वभावदृष्टि का निर्मल कार्य प्रगट नहीं कर सकेगा। निमित्त के मार्ग से उपादान का कार्य कभी नहीं होता, किन्तु उपादान की योग्यता से ही (उपादान के मार्ग से ही) उसका कार्य होता है। जिनशासन का उपदेश :- निमित्त की उपेक्षा करके स्वसन्मुख होओ
निमित्त की उपेक्षा नहीं करना अर्थात् परद्रव्य के साथ का सम्बन्ध नहीं तोडना - ऐसी मान्यता जैनशासन के विरुद्ध है। जैनशासन का प्रयोजन दूसरे के साथ सम्बन्ध कराना नहीं, किन्तु दूसरे के साथ का सम्बन्ध छुड़ाकर वीतरागभाव कराना है। समस्त सत्शास्त्रों का तात्पर्य वीतरागभाव है और वह वीतरागभाव, स्वभाव के लक्ष्य द्वारा समस्त परपदार्थों से उदासीनता होने पर ही होता है। किसी भी परलक्ष्य में रुकना शास्त्र का प्रयोजन नहीं है क्योंकि पर के लक्ष्य से राग होता है। निमित्त भी परद्रव्य है, इसलिए निमित्त की अपेक्षा छोड़कर अर्थात् उसकी उपेक्षा करके, अपने स्वभाव के सन्मुख होना ही प्रयोजन है। निमित्त की उपेक्षा करने योग्य नहीं है, अर्थात् निमित्त का लक्ष्य छोड़ने योग्य नहीं है' - ऐसा अभिप्राय मिथ्यात्व है और उस मिथ्याअभिप्राय को छोड़ने के बाद भी अस्थिरता के कारण निमित्त पर लक्ष्य जाता है, वह राग का कारण है; इसलिए अपने स्वभाव के आश्रय से निमित्त इत्यादि परद्रव्यों की उपेक्षा करना ही यथार्थ है।
मुमुक्षु जीवों को अवश्य समझने योग्य यह उपादान-निमित्त सम्बन्धी बात विशेष प्रयोजनभूत है। इसे