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वस्तुविज्ञानसार
शरीरादि जड़ की क्रिया से विकारी क्रिया नहीं होती और जीव की विकारी क्रिया से शरीरादि जड़ की क्रिया नहीं होती। राग-द्वेष अज्ञानरूप भाव, आत्मा की पर्याय में होते हैं; इसलिए आत्मा की पर्याय में ही वह विकारी क्रिया करने की योग्यता है। शरीर की क्रिया से पुण्य-पाप नहीं होते। पुण्य-पापरूप विकारी क्रिया बन्धन की क्रिया है, उस क्रिया के द्वारा संसार मिलता है, मोक्ष नहीं मिलता; अर्थात् इस क्रिया से धर्म नहीं होता।
प्रश्न – जड़ की क्रिया करने पर ही तो धर्म होता है ? जैसे पहले शरीर को घर से धर्मस्थान तक ले जाएँ, फिर वहाँ धर्म सुने,
और यथार्थ समझ करे, इस प्रकार जड़ की क्रिया से धर्म होने की बात हुई या नहीं?
उत्तर – जड़ की क्रिया के द्वारा धर्म नहीं होता। आत्मा, जड़ की क्रिया करता ही नहीं; इसलिए उस क्रिया के साथ आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है। उपरोक्त दृष्टान्त में शरीर की क्रिया बदलने से धर्म नहीं हुआ है किन्तु 'तत्त्व समझने को जाना है' ऐसा शुभभाव हुआ है और घर से धर्मस्थान पर गया है, इसमें निम्न प्रकार की क्रियाएँ हुई हैं -
(1) शुभभाव होना पुण्य है, वह विकारी क्रिया है। (2) शरीर का क्षेत्र परिवर्तन होना, वह जड़ की क्रिया है।
(3) आत्मप्रदेशों का क्षेत्रपरिवर्तन होना, वह आत्मा की विकारी क्रिया है।
(4) सत् सुनने के प्रति लक्ष्य होना, वह शुभभावरूप विकारी क्रिया है।