Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 96
________________ उपादान-निमित्त की स्वतन्त्रता 83 से पराधीन होता है परन्तु परद्रव्य जीव पर बलजोरी करके उसे पराधीन नहीं करते। पराधीन अर्थात् स्वयं स्वतन्त्ररूप से पर के आधीन होता है, पराधीनता मानता है; न कि परपदार्थ उसको आधीन करते हैं। द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग का क्रम प्रश्न- यह उपादान-निमित्त की बात तो द्रव्यानुयोग की है। परन्तु पहले तो जीव चरणानुयोग के अनुसार श्रद्धानी हो और उस चरणानुयोग के अनुसार व्रत-प्रतिमा इत्यादि को अङ्गीकार करे और फिर द्रव्यानुयोग के अनुसार श्रद्धानी होकर सम्यग्दर्शन प्रगट करे - ऐसी जैनधर्म की परिपाटी कितने ही जीव मानते हैं, क्या यह ठीक है? उत्तर - नहीं, जैनमत की ऐसी परिपाटी नहीं है। जैनमत में तो ऐसी परिपाटी है कि पहले सम्यक्त्व होता है, पीछे व्रत होते हैं। सम्यक्त्व, स्व-पर का श्रद्धान होने पर होता है तथा वह श्रद्धान द्रव्यानुयोग का अभ्यास करने पर होता है; इसलिए पहले द्रव्यानुयोग के अनुसार श्रद्धान करके सम्यग्दृष्टि हो और फिर चरणानुयोग के अनुसार व्रतादिक धारण करके व्रती होता है। इस प्रकार मुख्यरूप से तो निचलीदशा में ही द्रव्यानुयोग कार्यकारी है तथा गौणरूप से, जिसे मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती न जाने, उसे पहले किसी व्रतादि का उपदेश दिया जाता है; इसलिए समस्त जीवों को मुख्यरूप से द्रव्यानुयोग के अनुसार अध्यात्म-उपदेश का अभ्यास करना चाहिए। यह जानकर निचलीदशावालों को भी द्रव्यानुयोग के अभ्यास से पराङ्गमुख होना योग्य नहीं है।

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