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वस्तुविज्ञानसार
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वीतरागभावरूप चारित्र प्रगट नहीं होता; चारित्र तो उसी समय स्वरूप की लीनता से प्रगट हुआ है।
चारित्रदशा में मुनि के शरीर की नग्नदशा ही होती है। आत्मा को चारित्र अङ्गीकार करने का विकल्प उत्पन्न हुआ उसके कारण, अथवा चारित्रदशा प्रगट की इसलिए शरीर से वस्त्र हट गये - ऐसी बात नहीं है, किन्तु उस समय वस्त्रों के परमाणुओं की अवस्था वैसी ही योग्यतावाली थी; इसलिए वे हट गये हैं। आत्मा ने विकल्प किया, इसलिए उस विकल्प के आधीन होकर वस्त्र छूट गये, यदि ऐसा हो तो विकल्प कर्ता हुआ और वस्त्र छूटना उसका कर्म हुआ अर्थात् चेतन व जड़ दोनों द्रव्य एक हो गये। तथा ऐसा भी नहीं है कि वस्त्र छूटना था, इसलिए जीव को विकल्प उठा क्योंकि यदि ऐसा हो तो वस्त्र की पर्याय कर्ता और विकल्प उसका कर्म कहलायेगा और इस प्रकार दो द्रव्य एक हो जाएँगे। ___वास्तविकता यह है कि जब स्वभाव के भानपूर्वक चारित्र का विकल्प उत्पन्न होता है और जीव, चारित्र ग्रहण करता है, तब .. वस्त्र छूटने का प्रसङ्ग सहज ही उसके कारण से होता है किन्तु 'मैंने वस्त्रों का त्याग किया' अथवा 'मेरे विकल्प से वस्त्र छूट गये' - ऐसी कर्त्तत्वबुद्धि धर्मी के नहीं है। चारित्रदशा में पञ्च महाव्रतादि का विकल्प होता है किन्तु उस विकल्प के आश्रय से चारित्रदशा नहीं होती।
चारित्र में पञ्च महाव्रत के विकल्प को निमित्त कहा जाता है। वास्तव में विकल्प तो राग है, उससे स्वभावोन्मुख नहीं हुआ जाता, किन्तु जब जीव, विकल्प को छोड़कर स्वभावसन्मुख होता है, तब
पहा हाता।