Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 82
________________ उपादान-निमित्त की स्वतन्त्रता 69 होता है, वह उदासीन निमित्त कहलाता है। इच्छावान जीव और गतिवान अजीव प्रेरक निमित्त हैं और इच्छारहित जीव तथा गतिहीन अजीव उदासीन निमित्त हैं परन्तु दोनों प्रकार के निमित्त पर में बिल्कुल कार्य नहीं करते। जब घड़ा बनता है, तब उसमें कुम्हार और चाक प्रेरक निमित्त हैं तथा धर्मास्तिकाय इत्यादि उदासीन निमित्त हैं किन्तु हैं तो सब अकिञ्चित्कर। यह बात निमित्त की है कि भगवान महावीर के समवसरण में गौतमगणधर के आने से दिव्यध्वनि खिरी और पहले छियासठ दिन तक उनके न आने से भगवान की ध्वनि खिरने से रुकी रही। वाणी के परमाणुओं में जिस समय वाणीरूप से परिणमित होने की योग्यता थी, उस समय ही वे वाणीरूप में परिणमित हुए और उस समय वहाँ गणधरदेव की अवश्य उपस्थिति रहती है। गणधर आये इसलिए वाणी छूटी - ऐसी बात नहीं है। गणधर जिस समय आये, उसी समय उनकी आने की योग्यता थी - ऐसा ही सहज निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है; इसलिए इस तर्क को अवकाश ही नहीं है कि यदि गौतमगणधर न आये होते तो वाणी कैसे छूटती? निमित्त न हो तो...? 'कार्य होना हो और निमित्त न हो तो...?' ऐसी शङ्का करनेवाले से ज्ञानी पूछते हैं कि 'हे भाई! इस जगत् में तू जीव ही न होता तो? अथवा तू अजीव होता तो?' तब शङ्काकार उत्तर देता है कि 'मैं जीव ही हूँ' इसलिए दूसरे तर्क को स्थान नहीं है। तब ज्ञानी कहते हैं कि जैसे, तू स्वभाव से ही जीव है, इसलिए उसमें दूसरे तर्क को स्थान नहीं है; इसी प्रकार 'जब उपादान में कार्य

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