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उपादान-निमित्त की स्वतन्त्रता
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ही है कि जैसा होना था सो हो गया' तब फिर उसके नियतिवाद को सच्चा क्यों नहीं माना जाए?
उत्तर - वह जीव जो शान्ति रखता है, वह यथार्थ शान्ति नहीं है किन्तु मन्दकषायरूप शान्ति है। यदि नियतिवाद का यथार्थ निर्णय हो तो, जिस प्रकार उस एक पदार्थ का जैसा होना था वैसा हुआ, उसी प्रकार समस्त पदार्थों का जैसा होना हो वैसा ही होता है - ऐसा भी निर्णय होना चाहिए और यदि ऐसा निर्णय हो तो फिर यह सब मान्यताएँ दूर हो जाती है कि 'मैं परद्रव्य का निमित्त होकर उसका कार्य करूँ।' जिस कार्य में, जिस समय, जिस निमित्त की उपस्थिति रहनी हो, उस कार्य में, उस सयम, वह निमित्त स्वयमेव होता ही है, तब फिर ऐसी मान्यताओं को अवकाश ही कहाँ रहेगा कि 'निमित्त मिलाना चाहिए' अथवा निमित्त की उपेक्षा नहीं की जा सकती, अथवा निमित्त न हो तो कार्य नहीं होता। यदि सम्यनियतिवाद का निर्णय हो तो निमित्ताधीनदृष्टि दूर हो जाती है।
प्रश्न - मिथ्यानियतिवाद को गृहीतमिथ्यात्व क्यों कहा है ?
उत्तर- निमित्त से धर्म होता है, राग से धर्म होता है, शरीरादि का आत्मा कुछ कर सकता है - ऐसी मान्यता के रूप में अगृहीत -मिथ्यात्व अनादिकाल से विद्यमान था और जन्म के बाद शास्त्रों को पढ़कर अथवा कुगुरु इत्यादि के निमित्त से मिथ्यानियतिवाद का नवीन कदाग्रह ग्रहण किया; इसलिए उसे गृहीतमिथ्यात्व कहा जाता है। पहले जिसे अनादिकालीन अगृहीतमिथ्यात्व होता है; उसी को गृहीतमिथ्यात्व होता है।
जीव, इन्द्रिय-विषयों की पुष्टि के लिए जो होना होगा