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उपादान - निमित्त की स्वतन्त्रता
इसमें स्वभाव का अनन्त पुरुषार्थ आ जाता है - यह जैनदर्शन का मूलभूत रहस्य है ।
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सम्यक्नियतिवाद और मिथ्यानियतिवाद
गोम्मटसार कर्मकाण्ड की 882 वीं गाथा में जिस नियतिवादी जीव की गृहीतमिथ्यादृष्टि कहा है, वह जीव तो नियतिवाद की बात करता है, किन्तु वह न तो सर्वज्ञ को मानता है और न अपने ज्ञान में ज्ञाता-दृष्टापने का पुरुषार्थ करता है । यदि सम्यक्नियतिवाद का यथार्थ निर्णय करे तो उसमें सर्वज्ञ का निर्णय और स्वभाव के ज्ञातादृष्टापने का पुरुषार्थ आ ही जाता है और यह सम्यक्निर्णय गृहीत एवं अगृहीतमिथ्यात्व का नाश करनेवाला है । सम्यक्नियतिवाद कहो या स्वभाव कहो; उसमें प्रत्येक समय की पर्याय की स्वतन्त्रता सिद्ध हो जाती है । यदि इस न्याय को जीव भलीभाँति समझे तो उपादान-निमित्त सम्बन्धी सभी गड़बड़ दूर हो जाए, क्योंकि जिस वस्तु में जिस समय जो पर्याय होती है, वही होती है, तो फिर 'निमित्त उसको करे या निमित्त के बिना वह न हो' - इस बात को अवकाश ही कहाँ है ? जो जीव सर्वज्ञ को जानकर, नियतिवाद को मानकर, पर के और राग के कर्त्तत्व का अभाव करता है तथा ज्ञाता-दृष्टापनेरूप साक्षीभाव प्रगट करता है, वह जीव अनन्त पुरुषार्थी सम्यग्दृष्टि है ।
कौन कहता है कि सम्यक्नियतिवाद गृहीतमिथ्यात्व है ?
सम्यक्नियतिवाद, गृहीतमिथ्यात्व नहीं किन्तु वीतरागता का कारण है। जो सर्वज्ञ के स्वीकाररूप ऐसे सम्यक्नियतिवाद को एकान्तमिथ्यात्व कहते हैं, उन्होंने इस बात को यथार्थतया समझा तो नहीं, भलीभाँति सुना तक नहीं है।