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वस्तुविज्ञानसार
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मोक्षदशा प्रगट होती है, उस द्रव्य की प्रतीति के बल से मोक्षमार्ग प्रारम्भ हो जाता है।
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये छहों द्रव्य अपनी-अपनी क्रमबद्धपर्यायरूप परिणमते हैं। जिस वस्तु में से अपनी अवस्था आती है, उस वस्तु पर दृष्टि रखने से मोक्ष होता है। परद्रव्य मेरी अवस्था को कर देगा - ऐसी पराधीनदृष्टि के टूट जाने से और निजद्रव्य में दृष्टि रखने से राग की उत्पत्ति नहीं होती, अपितु जीव, अकर्ता होकर स्वयं ज्ञाता-दृष्टा हो जाता है और ज्ञाता -दृष्टा के बल से अस्थिरता को तोड़कर, सम्पूर्ण स्थिर होकर अल्पकाल में ही मुक्ति को प्राप्त कर लेता है, इसमें अनन्त पुरुषार्थ आ जाता है।
पुरुषार्थ के द्वारा स्वरूप की दृष्टि करने से और उस दृष्टि के बल से स्वरूप में रमणता करने से चैतन्य में शुद्ध क्रमबद्धपर्याय होती है। चैतन्य की शुद्ध क्रमबद्धपर्याय प्रयत्न के बिना नहीं होती। मोक्षमार्ग के प्रारम्भ से मोक्ष की पूर्णता तक सर्वत्र, सम्यक् पुरुषार्थ और ज्ञान का ही कार्य है।
बाह्य वस्तु का जो होना हो सो हो, इस प्रकार क्रमबद्धता का निश्चय वास्तव में तब सच्चा कहलाता है, जब बाह्य वस्तु से उदास होकर, सबका ज्ञातामात्र रह जाए। जो जीव अपने को पर का कर्ता मानता है और यह मानता है कि पर से अपने को सुख -दुःख होता है, उसे क्रमबद्धपर्याय की सच्ची प्रतीति नहीं है। ज्ञानस्वभाव के सन्मुख देखनेवाले को ही क्रमबद्धपर्याय का सच्चा ज्ञान होता है।