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सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ
रुकनेवाला है । आत्मा का मार्ग आत्मा में से निकलकर आत्मा में ही समाविष्ट हो जाता है ।
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यहाँ मात्र जीव की ही बात नहीं है, अपितु सभी पदार्थों की अवस्था क्रमबद्ध होती है। यह निश्चय करने में ज्ञान का अनन्त वीर्य है । यह निश्चय करने पर, पहले अनन्त पदार्थों को अच्छा-बुरा मानकर जो राग-द्वेष होता था, वह सब दूर हो गया; पर का स्वामित्व मानकर जो वीर्य पर में रुक रहा था, वह अब अपने आत्मस्वभाव की ओर लग गया है; राग - निमित्त इत्यादि के ओर की दृष्टि छूट गयी और स्वभाव में दृष्टि हो गयी । स्वभावदृष्टि में अपनी पर्याय की स्वाधीनता की कैसी प्रतीति होती है, इसकी यह बात है । स्वभावदृष्टि को समझे बिना व्रत, तप आदि सब बिना इकाई के शून्य के समान हैं। मिथ्यादृष्टि जीव के यह कोई सच्चे नहीं होते, उनसे पुण्य होगा; धर्म नहीं, मोक्षमार्ग नहीं ।
हे जीव ! तेरी वस्तु में भगवान जितनी ही परिपूर्ण शक्ति है, परमेश्वरता अपनी वस्तु में से ही प्रगट होती है। यदि ऐसे अवसर पर यथार्थ वस्तु को दृष्टि में न ले तो वस्तु के स्वरूप को जाने बिना जन्म-मरण का अन्त नहीं हो सकता । वस्तु के जानने पर अनन्त संसार दूर हो जाता है। वस्तु में संसार नहीं है और वस्तु की प्रतीति होने पर मोक्षपर्याय की तैयारी की प्रतिध्वनि होने लगती है ।
भगवन्! यह तेरे स्वभाव की बात है, एक बार हाँ तो कह ! तेरे स्वभाव की स्वीकृति में से स्वभावदशा की अस्ति आयेगी; स्वभावसामर्थ्य का इन्कार मत कर! सब प्रकार से अवसर आ चुका है, अपने द्रव्य में दृष्टि करके देख !! जिस द्रव्य में से सादि - अनन्त