Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 47
________________ 34 सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ निर्णय करके ज्ञानी सबको निःशङ्करूप से जानता है। ऐसे ज्ञान के बल से वह केवलज्ञान और अपनी पर्याय के बीच के अन्तर को तोड़कर अल्पकाल में ही केवलज्ञान प्रगट कर लेगा। जो जीव, वस्तु की स्वतन्त्र क्रमबद्धपर्याय को नहीं मानता और यह मानता है कि मैं पर का कुछ कर सकता हूँ, उसमें परिवर्तन कर सकता हूँ, और यह पर मुझे राग-द्वेष कराता है', उसे सर्वज्ञ के ज्ञान की श्रद्धा नहीं है तथा वह सर्वज्ञ के आगम से प्रतिकूल प्रगट मिथ्यादष्टि है। जो यह मानता है कि जो सर्वज्ञ के ज्ञान में प्रतिभासित हुआ है, उसमें मैं परिवर्तन कर दूँ, वह सर्वज्ञ के ज्ञान को नहीं मानता। जो सर्वज्ञ के ज्ञान को और उनकी श्रीमुखवाणी के/ दिव्यध्वनि के न्यायों को नहीं मानता, वह अवश्य मिथ्यादृष्टि है। सर्वज्ञदेव, तीन काल और तीन लोक के समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायों को जानते हैं और सभी वस्तु की पर्यायें प्रगटरूप में उसी में स्वयं होती हैं, तथापि जो उससे विरुद्ध मानता है अर्थात् सर्वज्ञ के ज्ञान से और वस्तु के स्वरूप से विरुद्ध मानता है, वह सर्वज्ञ का और अपने आत्मा का विरोधी है, मिथ्यादृष्टि है। ___ यद्यपि पर्याय क्रमबद्ध होती है किन्तु वह बिना पुरुषार्थ के नहीं होती। (जीव) जिस ओर का पुरुषार्थ करता है, उस ओर की क्रमबद्धपर्याय होती है। यदि कोई कहे कि इसमें तो नियत आ गया, तो उसके उत्तर में कहते हैं कि हे भाई! त्रिकाल की नियत पर्याय का निर्णय करनेवाला कौन है ? जो त्रिकाल की पर्यायों को निश्चित करता है, वह अपने सर्वज्ञस्वभाव को ही निश्चित करता है। जो एकान्त पर के लक्ष्य से नियत की बात करता है, वह एकान्तवादी,

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