Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 33
________________ 20 सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ - सामान्य में से विशेष होता है - इतना सिद्धान्त निश्चित करने पर, उसका परिणमन निज की ओर ढल जाता है। पर से मेरी पर्याय नहीं होती, निमित्त से भी नहीं होती, विकल्प से भी शुद्धपर्याय नहीं . होती और एक पर्याय में से भी दूसरी पर्याय होती; इस प्रकार सबसे लक्ष्य हटाकर, जो जीव अपने द्रव्य की ओर झुका है, उस जीव को ऐसी प्रतीति हो गयी है कि सामान्य में से ही विशेष होता है। अज्ञानी को ऐसी स्वाधीनता की प्रतीति नहीं होती। ___ भगवान ने जैसा देखा है, वैसा ही होता है - यह निश्चय करनेवाले की बुद्धि परकर्तृत्व से हटकर, निज में स्तम्भित हो गयी है। ज्ञान ने निज में स्थिर होकर सर्वज्ञ की ज्ञानशक्ति का और समस्त द्रव्यों का निर्णय किया है। वह निर्णयरूप पर्याय न तो किसी पर में से आई है और न विकल्प में से आई है, किन्तु वह निर्णय की शक्ति द्रव्य में से प्रगट हुई है अर्थात् निर्णय करनेवाले ने द्रव्य को प्रतीति में लेकर निर्णय किया है। ऐसा निर्णय करनेवाला जीव ही सर्वज्ञ का सच्चा भक्त है। उसका झुकाव अपने सर्वज्ञस्वभाव की ओर हुआ है। अतः वह कहीं भी न रुककर, अल्पकाल में ही सर्वज्ञ हो जाएगा। इससे विरुद्ध अर्थात् कोई द्रव्य अन्य द्रव्य का कुछ कर सकता है - ऐसा माननेवाला वास्तव में अपने आत्मा को, सर्वज्ञ के ज्ञान को, न्याय को, तथा द्रव्य-पर्याय की स्वतन्त्रता को नहीं मानता। अपना आत्मा पर से भिन्न है, तथापि वह पर का कुछ करता है; इस प्रकार मानना, आत्मा को पररूप मानना है अथवा आत्मा को नहीं मानना ही है। वस्तु की अवस्था सर्वज्ञदेव के देखे हुए अनुसार होती है,

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