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वस्तुविज्ञानसार
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होकर ज्ञानस्वभाव की श्रद्धा करता है और चैतन्य के केवलज्ञान की प्रतीति करके, ज्ञानभावरूप परिणत होता है, उसे ही क्रमबद्धपर्याय का सच्चा स्वरूप ख्याल में आता है। मेरी पर्यायरूप मेरा द्रव्य परिणमता है; इस प्रकार द्रव्य की ओर झुकने से साधक पर्याय का प्रारम्भ हुआ, उसे अब स्वद्रव्य की ओर ही देखना रहा और उसी द्रव्य के बल पर पूर्णता हो जाएगी।
वस्तु का सत्यस्वरूप तो ऐसा ही है, इसे समझे बिना छुटकारा नहीं है; वस्तु का स्वाधीन परिपूर्ण स्वरूप ध्यान में लिए बिना पर्याय में शान्ति कहाँ से आयेगी? यदि सुख-दशा चाहते हो तो यह वस्तुस्वरूप जानना पड़ेगा; जिससे सुख-दशा प्रगट हो सके।
अहो! मेरी पर्यायरूप मेरा आत्मा ही परिणमता है, इस प्रकार जिसने निश्चय किया, उसे अपने में ज्ञानस्वभाव की सन्मुखता से समभाव-ज्ञाताभाव हो जाता है, उसे पर्याय को बदलने की आकुलता नहीं रहती किन्तु जो-जो पर्यायें होती हैं, वह उनका ज्ञाता के रूप में जाननेवाला होता है। जो ज्ञाता के रूप में जाननेवाला होता है, उसे केवलज्ञान होने में विलम्ब कैसा? ज्ञातृत्व का विरोध करके जो पर्याय होती है, वह विषमभावरूप है अर्थात् विकारी है और निज में दृष्टि करके ज्ञातृत्व के रूप में रहने पर जो पर्याय होती है, वह समभाव से विशेष शुद्ध होती जाती है।
जीव का सबकुछ अपनी पर्याय में ही समाविष्ट होता जाता है। यदि अपनी पर्याय को स्वदृष्टि से करे तो शुद्ध हो और यदि परदृष्टि से करे तो अशुद्ध हो। शुद्धता-अशुद्धता का पर के साथ सम्बन्ध नहीं है, किन्तु दृष्टि किस ओर जाती है, इस पर शुद्ध