Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 31
________________ 18 सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ का निर्णय करनेवाले ज्ञान में सम्यक् पुरुषार्थ आ ही जाता है। सर्वज्ञ का निर्णय करने में ज्ञान का अनन्त वीर्य कार्य करता है, तथापि उसका इन्कार करके तू कहता है कि इसमें पुरुषार्थ नहीं रहा! सच तो यह है कि तुझे पूर्ण केवलज्ञान के स्वरूप की श्रद्धा ही नहीं है और केवलज्ञान को स्वीकार करने का अनन्त पुरुषार्थ तुझमें प्रगट नहीं हुआ है। केवलज्ञान को स्वीकार करने में अनन्त पुरुषार्थ का अस्तित्व आ जाता है, तथापि यदि उसे स्वीकार नहीं करता तो कहना होगा कि तू मात्र बातें ही करता है किन्तु तुझे सर्वज्ञ का निर्णय नहीं हुआ है। यदि सर्वज्ञ का निर्णय हो तो पुरुषार्थ की और मोक्ष की शङ्का नहीं रह सकती। यथार्थ निर्णय करे और मोक्ष का पुरुषार्थ न आये – यह हो ही नहीं सकता। जिस ज्ञान ने अनन्त पदार्थों को जाननेवाले, अनन्त सामर्थ्य से परिपूर्ण और भवरहित केवलज्ञान का निर्णय किया, उस ज्ञान ने अपने पुरुषार्थ के द्वारा निर्णय किया है या बिना ही पुरुषार्थ के? जिसने भवरहित केवलज्ञान को प्रतीति में लिया है, उसने राग में लिप्त होकर प्रतीति नहीं की, किन्तु राग से पृथक् होकर, अपने ज्ञानस्वभाव में स्थिर होकर भवरहित केवलज्ञान की प्रतीति की है। जिस ज्ञान ने ज्ञान में स्थिर होकर भवरहित केवलज्ञान की प्रतीति की है, वह ज्ञान स्वयं भवरहित है और इसलिए उस ज्ञान में भव की शङ्का नहीं है। जब पहले ज्ञान में केवलज्ञान की प्रतीति नहीं थी, तब वह अनन्त भव की शङ्का में झूलता रहता था और अब प्रतीति होने पर अनन्त भव की शङ्का दूर हो गयी है तथा एकाध भव में मोक्ष के लिए

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