Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 23
________________ 10 सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ उपादान के कार्य में किसी भी प्रकार की सहायता, असर, प्रभाव अथवा परिवर्तन नहीं करता। यह नहीं हो सकता कि निमित्त न हो, और निमित्त से कार्य हो - ऐसा भी नहीं हो सकता। चेतन अथवा जड़ द्रव्य में उसकी अपनी जो क्रमबद्ध अवस्था, जब होनी होती है, तब अनुकूल निमित्त उपस्थित होते हैं - ऐसा स्वाधीन दृष्टि का विषय है, उसे सम्यग्दृष्टि ही जानता है, मिथ्यादृष्टियों को वस्तु की स्वतन्त्रता की प्रतीति नहीं होती; इसलिए उनकी दृष्टि निमित्त पर ही रहती है। अज्ञानी को वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं है, इसलिए वह वस्तु के धर्म में शङ्का करता है कि यह ऐसा कैसे हो गया है ? उसे सर्वज्ञ के ज्ञान की और वस्तु की स्वतन्त्रता की प्रतीति नहीं है। ज्ञानी को वस्तुस्वरूप में शङ्का नहीं होती। वह जानता है कि जिस काल में, जिस वस्तु की, जो पर्याय होती है, वह उसकी क्रमबद्ध अवस्था है; मैं तो मात्र ज्ञायक हूँ। इस प्रकार ज्ञानी को अपने ज्ञातृत्व स्वभाव की प्रतीति होती है; इसलिए वह सर्वज्ञ भगवान के द्वारा जाने गए वस्तुस्वरूप का चिन्तन करके, अपने ज्ञान की भावना को बढ़ाता है कि मैं ज्ञायक ही हूँ; अपने ज्ञायकस्वरूप की भावना करते-करते मुझे केवलज्ञान प्रगट हो जाएगा। ऐसी भावना केवली भगवान के नहीं होती किन्तु जिसे अभी अल्प रागद्वेष होता है - ऐसे चौथे, पाँचवें और छठे गुणस्थानवाले ज्ञानी की धर्मभावना का यह विचार है। इसमें यथार्थ वस्तुस्वरूप की भावना है। यह कोई मिथ्या कल्पना या झूठे आश्वासन के लिए नहीं है। सम्यग्दृष्टि किसी भी संयोग-वियोग को आपत्ति का कारण नहीं

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