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सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ
स्वामी कार्तिकेय मुनिराज के सम्बन्ध में श्रीमद्राजचन्द्र ने लिखा है कि ‘स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा वैराग्य का उत्तम ग्रन्थ है । उसमें द्रव्य / वस्तु को यथावत् लक्ष्य में रखकर, वैराग्य का निरूपण किया है। गत वर्ष मद्रास तक जाना हुआ था, उस भूमि में कार्तिकेयस्वामी ने बहुत विचरण किया है। इस ओर के नग्न, भव्य, ऊँचे अडोल वृत्ति से स्थित पहाड़ देखकर स्वामी कार्तिकेयादि की अडोल वैराग्यमय दिगम्बरवृत्ति बहुत याद आती थी । नमस्कार हो उन स्वामी कार्तिकेयादि को । इस महा सन्त-मुनि के कथन में बहुत गहन रहस्य भरा हुआ है ।'
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'जिस जीव के' अर्थात् सभी जीवों के लिए यही नियम है कि जिस जीव को, जिस काल में, जीवन मरण इत्यादि का कोई भी संयोग, सुख-दुःख का निमित्त आनेवाला है, वह आएगा ही, उसमें परिवर्तन करने के लिए देवेन्द्र, नरेन्द्र अथवा जिनेन्द्र इत्यादि कोई भी समर्थ नहीं है । यह सम्यग्दृष्टि जीव का यथार्थ वस्तुस्वरूप का विचार है। वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है, उसे अपने ज्ञान में लेने योग्य है।
यहाँ सुख-दुःख के संयोग की बात की गयी है। संयोग के समय भीतर जो शुभ या अशुभभाव होता है, वह आत्मा के वीर्य का कार्य है । पुरुषार्थ की दुर्बलता से राग-द्वेष होते हैं । सम्यग्दृष्टि अपनी पर्याय की हीनता को स्व-लक्ष्य से जानता है; वह यह नहीं मानता कि संयोग के कारण से राग-द्वेष होते हैं, किन्तु वह यह मानता है कि जैसा सर्वज्ञदेव ने देखा है, वैसा ही संयोग-वियोग क्रमशः होता है ।