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वस्तुविज्ञानसार
प्रश्न - सर्वज्ञ भगवान ने देखा हो, तभी तो आत्मा की रुचि होती है न?
उत्तर - यह किसने निश्चय किया कि सर्वज्ञ भगवान सब कुछ जानते हैं? जिसने अपनी पर्याय में सर्वज्ञ भगवान की ज्ञानशक्ति का निर्णय किया है, उसकी पर्याय, संसार से और राग से हटकर, अपने ज्ञातस्वभाव की ओर झुक गयी है, तभी सर्वज्ञ का निर्णय सच्चा होता है। जिसकी पर्याय ज्ञानस्वभाव की ओर हो गयी है, उसे आत्मा की ही रुचि होती है। जिसने यह यथार्थरूप से निश्चय किया कि 'अहो! केवली भगवान तीन काल और तीन लोक के ज्ञाता हैं, वे अपने ज्ञान से सबकुछ जानते हैं किन्तु किसी का कुछ नहीं करते', उसने अपने आत्मा को ज्ञातास्वभाव के रूप में जान लिया और उसको तीन काल और तीन लोक के समस्त पदार्थों की कर्त्तत्वबुद्धि दूर हो गयी है अर्थात् अभिप्राय की अपेक्षा से वह सर्वज्ञ हो गया है। स्वभाव का ऐसा अनन्त पुरुषार्थ, क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में आता है। क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा नियतवाद नहीं है किन्तु सम्यक् पुरुषार्थवाद है, सर्वज्ञवाद है।
प्रत्येक द्रव्य की एक के बाद दूसरी जो अवस्था होती है, उसका कर्ता स्वयं वही द्रव्य होता है, किन्तु मैं उसका कर्ता नहीं हूँ
और न मेरी अवस्था का कोई अन्य कर्ता है। किसी निमित्तकारण से राग-द्वेष नहीं होते; इस प्रकार निमित्त और राग-द्वेष को मात्र जाननेवाली ज्ञान की अवस्था रह जाती है। वह अवस्था ज्ञातास्वरूप को जानती है, राग को जानती है और पर को भी जानती है; मात्र जानना ही ज्ञान का स्वरूप है। जो राग होता है, वह ज्ञान का ज्ञेय है, किन्तु राग उस