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JE उत्सराध्य
अर्थः--यथा जेम त्रण वाणीया कोई वेपारी पासेथी मूल मुडी लइने पोताना नगरथी अन्य नगर गया. आ त्रण जणमाथी भाषांतर पन सूत्रम् | एके तो ए मुडीथी वेपार करी लाभ मेळव्यो, अने बीजाए धंधो तो कर्यो पण मूलगा करी हतुं तेटलं मूल धन पाछ.लइने आव्यो, एक अध्ययन
ज्यारे बीजो चूत मद्य परस्त्री वेश्या वगेरेना सेवनरूप निदित व्यवहारथी मूल धन पण गुमावीने पोताने घरे आव्यो. आ व्यवहारनी | ॥४१८॥
| ॥४१८॥ उपमा धर्ममां पण तमारे जाणवी. १४-१५
माणुसत्तं भवे मलं । लामो देवेगई भवे ॥ मूलँच्छेएण जीर्वणं । नरंगतिरिक्खत्तणं धुवं ॥१६॥ मूलार्थः-(माणुसतं) मनुष्यपणुं (मूल) मुळ मुळीरूप (भवे) छे तथा (लाभ.) लाभनी जेवी [देवगड पंचगति (भवे) होघ छे तथा [मूलच्छेषण) मुडीनो नाश थवा बडे [जीवाणं] जीवोंने (नरगतिरिक्खाणां) नारकी अने तियच पणु (धुर्व) प्राप्त थाय छे. १६ ।
व्या०-मनुष्यो मृत्वा मनुष्य एव भवेत, तदा मनुष्यत्वं मूलद्रव्यसदृशं ज्ञेयं, यो मनुष्यभवाच्युत्वा देवो भवेत्तदा देवत्वं लाभतुल्यं ज्ञेयं, यत्पुनर्मनुष्याणां नरकतिर्यक्त्वप्राप्तिर्भवेत्तदा मूलच्छेदेन ध्रुवं निश्चितंदुर्भाग्यत्वं ज्ञेयं.१६
अर्थ:--मनुष्य परीने पाछो मनुष्य अवतरे त्यारे मनुष्यत्व मूल द्रव्य समान जाणवू. जे मनुष्य मनुष्यभवथी च्युत थइ देव थाय त्यारे ए देवत्व लाभ तुल्य गणवू. पण जो मनुष्यने नरक अथवा तिर्यक्-पशु पक्षि आदिक योनि प्राप्ति थाय त्यारे मूल च्छेद थतां निश्चित दुर्भाग्यज समजवान. १६
दुहओ गई बालस्स । आवईवहेमलिया ॥ देवंतं माणुसत्तं च । जें जिएं लोलया संढे ॥१७॥
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