Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Sudharmaswami, Lakshmivallabh Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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उत्तराध्य
यन सूत्रम्
॥५४१ ॥
兆兆蚝
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व्या० - हे मुने! हे भगवन्! हे पूज्य ? स्वमिहास्मिन् जन्मन्युत्तमोऽसि सर्व पुरुषेभ्यः प्रधानोऽसि, उत्तमगुणान्वितत्वात्, 'पिचा' इति प्रेत्य परलोकेऽप्युत्तमो भविष्यसि, लोकस्योत्तमोत्तममतिशयप्रधानं स्थानमेतादृशं सिद्धि मुक्तिस्थानं नीरजा निःकर्मा गच्छसि त्वं गमिष्यसि, अत्र लोगुत्तममित्यत्र मकारः प्राकृतत्वात्, लोकोत्तमोत्तम इति वक्तव्यम् ॥५८॥
अर्थ- हे मुने! पूज्य भगवन् ! तमें आ जन्ममां उत्तम छो सर्व पुरुषोमां प्रधान छो, तेम उत्तम गुणवान् होवाथी परलोकमां उत्तम थशो. तेम लोकना उत्तमोत्तम प्रधान स्थान सिद्धि=मुक्ति स्थानने, तमें नीरजाः एटले कर्मरहित थइने पामशो. 'लोगुत्तमुराम' ए पदमां प्राकृत होवाथी 'म' रही शके ॥५८॥
एवं अभित्तो यरिसिं उत्तमाए सैद्धाए ॥ पायाहिणं कुणतो पुणो पुणो वेदए सक्को ॥ ५९ ॥ मूल - [व] आ प्रमाणे [उत्तमाप] उत्तम (सद्धार) श्रद्धावडे (रायरिसि) राजर्षिने [अभित्थुण तो] स्तुति करता तथा (पायाहिण) प्रदक्षिणा [कुणतो] करता एवा (सको) शक्र इन्द्रे (पुणो पुणे) वारवार (वंदर) तमने वंदना करी. ५९
व्या० - शक्र इंद्रो नमिराजर्षि पुनः पुनर्वदते, भूयो भूयो नमस्कुम्ते, किं कुर्वन् ? प्रदक्षिणां कुर्वन् पुनः किं कुर्वन् ? उत्तमया प्रधानया श्रद्धया रुच्या भक्त्याऽभिष्टुवन् स्तुतिं कुर्वन्नित्यर्थः ॥ ५९ ॥
अर्थ --एवी रीते उत्तम श्रद्धावडे भक्ति पूर्वक स्तुति करतो इंद्र, पुनः पुनः वार वार=नमिराजर्षिने प्रदक्षिणां करतां वंदे ले.
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भाषांतर अध्ययन ९
॥६४१ ॥

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