Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Sudharmaswami, Lakshmivallabh Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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उत्तराध्ययन सूत्रम्
भाषांतर अध्यगन९
॥५३७॥
॥५३॥
त्याज्य छे, एवाभोए तो केवळ संयमन गृहण करवा योग्य छे. ५३
अहे वयइ कोहेण । माणेणं अहमागई ॥ माया गइ पडिग्घाओ। लोभाओ दुहओ भयं ५४। मूल-प्राणी (कोहेण) क्रोधवडे (अहे वयइ) नरकादिगतिमां जाय छे. (माणेण) मानवडे (अहमा गइ) अधमगतिमा (माया) माया वडे (गइ पडिग्घाओ) सारी गतिनो प्रतिघात-विनाश थाय छे, तथा [लोहारो] लोभ थकी [दुहओं] बन्ने प्रकारनो [भय] भय प्राप्त थाय छे. ॥५४॥
व्या०-जीवः क्रोधेनाधो प्रजति, नरके याति, मानेनाधमा गतिर्भवति, गर्दभोप्ट्रमहिषशकरादिगतिः स्यात्. मायया सुगतेः प्रतिधातः, माया सुगतरर्गला भवति, लोभाद द्विधापि भयं स्यात्, एहिकं पारलौकिकं च भयं दुःखं स्यात् कामप्रार्थने ह्यवश्य भाविनः क्रोधादयस्ते च क्रोधादय ईदृशाः, ततः कथं तत्प्रार्थनातो दुर्गतिन स्यात् ? ॥५४॥ | एवं वचनयुक्तिं श्रुत्वेंद्रो नमिराजर्षिपति क्षोभयितुमशक्तः किमकरोदित्याह
____ अर्थ-जीव क्रोधे करी अधोगति पामे छे अर्थात् नरके जाय छे; माने करी अधम गतिने पामे छे, अर्थात् गधेडा, उंट, पाडा, मूकर; इत्यादि योनिने पामे छे; मायावडे सारी गतिनो प्रतिघात थाय छे अर्थात् कपट दगा वगेरे सद्गति मळयाना आडा आगकीया तुल्य बने छ; अने लोभथी तो बेय प्रकारनां भय उत्पन्न थाय छे; अर्थात् आ लोकमां तथा परलोकमां दुःख थाय छे. हवे जे पुरुष कामनी वांछना राखनारने ए कामनो प्रतिघात थतां क्रोधादिक तो अवश्य थवाना, अने ते क्रोधादिक तो उपर कडा
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