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अर्थ-भो प्राज्ञ ! अमें सुखरूप वसिये छीए, मुखेथी स्थिति करीये छीए, सुखे करी जीविये छीए-माण धारण करी रह्या उत्तराध्य| छीए. जे अमारुं कइ स्वल्प पण (ज्ञानदर्शन विना) पर कंइ स्वकीय वस्तुज नथी; जे कंइ आत्मीय वस्तु होय तो तेने माटे नजर
126भाषांतर पन सूत्रम्
अध्ययन रखाय अर्थात् अग्नि जलादिकथी तेने बचावा यत्न कराय; पण जे आत्मीय न होय तेने माटे कोण खेद करे? का छे के॥५१०॥
(एगो मे०) ज्ञानदर्शन संयुक्त मारो एक आत्माज शाश्वत छे शेष तो बधा बाह्य भाव पदार्थ संयोगलक्षण छे अर्थात् परस्पर संबंधथी ॥५१०॥ कल्पेला छे. ।।१।। एज दर्शाये हे- मिथिलानगरी दह्यमानचळवा मांडे तो पण तेमां मारुं कंद पण बळे नहि. आधी स्वजन | धनधान्यादि बधाय पदार्थो माराथी अतिशय भिन्न होवाथी एओनो विनाश थवाथी मारूं कंड पण विनष्ट यतुं नथी एम सूचव्यु.१४ |
चत्तपुत्तंकलत्तस्स । निधावारस्स भिक्खुणो ॥ पियं न विजए किंचि । अप्पियपि न विजए ॥१५॥ BE मूल-(चत्तपुत्तकलत्तस) पुत्र परिवारने त्यजी दीधा छे. पवा [निव्वावारस्स खेती आदि व्यापार रहित पया [भिक्खुणो] भिक्षुने PET (किंचि) कांइपण (पि') प्रिय (न विजए) नथी तेमज (अप्पिषि) अप्रिय पण कांड [न विजय नथी. १५
व्या०--एतादृशस्य भिक्षोभिक्षाचरस्य प्रियमभियं च न किंचिद्विद्यते, कथंभूतस्य भिक्षोः? त्यक्तपुत्रकल त्रस्य, | त्यक्तानि पुत्रकलत्राणि येन स त्वक्तपुत्रकलत्रस्तस्य परिहतसुतभार्यस्य, पुनः कीदृशस्य? निर्व्यापारस्य, व्यापारानिर्गता नियापारस्तस्य निरारंभस्य पंचविंशतिक्रियारहितस्य. ॥१५॥
अर्थ-एवा भिक्षुने प्रिय के अप्रिय कंड होतुं नथी. केवाने? ते कहे के-त्यक्त के पुत्र तथा कलत्र-स्त्री-वगेरे जेणे एटले
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