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उत्सराध्यपन मृत्रम
॥५२३।।
जे दश लक्ष सुभटोने जीते तेना करता जे कोइ एवो पुरुष होय के जे पोताना दुष्टाचारमा प्रवृत्त थयेला आत्माना साथे युद्ध करी|6भाषांतर एक आत्माने जीते ए तेनो परम-नाम उत्कृष्ट जय समजवो. दश लक्ष भटने जीतनार करतां आत्मजयी पुरुष अधिक बलवान छे अध्ययन
अप्पाणमेव जुझाहि । किं ते जुज्झेण बझओ ॥ अप्पंणा एव अप्पाणं ॥ ज इता मुंहमेहऐ ॥३५॥ ॥५२३॥ (अप्पाणमेव) आत्मानी साथेज [जुज्झहि] तुं युद्ध कर (ते) तारे (वज्झओ) बाहा राजाओने आश्रयी [जुज्झेण] युद्ध करवा बडे (कि) शु फळ छे? केवळ (अप्पाणमेय) श्रात्मावडेज (अप्पाण) आत्माने (जइत्ता) जीतीने साधु (सुद्द पहए) मुक्ति सुखने पामे छे. ३५
व्या--अतो भो मुने! आत्मानमेव युध्ध्यस्व? याद्यशभिः सह युद्धेन ते किं? ततश्चात्मनैवात्मानं जित्वा मुनिः सुखमेधते पासोतीत्यर्थः, अत्रात्माशब्देन मनः, सर्वत्र सूत्रत्वानपुंसकत्वं, अतति गच्छतिप्रामोति नवीनानि नवीनान्यध्यवसायस्थानांतराणीयात्मा मन उच्यते. ॥ ३५ ॥
अर्थ-माटे हे मुने! आत्मानी साथेन युद्ध करो, बाहेरना शत्रुओथी युद्ध करी तमारे शु प्रयोजन सिद्ध करवानुं छे? तेथी आत्मावडेज आत्माने जीती सुखे वृद्धि पामे छे. अत्रे आत्मा शब्दे करी मन समजवान छे. 'सर्वत्र' ए मूत्रथी नपुंसकत्व छे. नवां नवां अध्यवसाय स्थानांतरोने 'अतति' माप्त थाय के आची व्युप्तत्ति होवाथी आत्मशब्द मननो पण वाचक होइ शके छे. ३५
पंचेंदियाणि कोहं । माणं मायं तहेव लोह य ॥ दुजयं चेवं अप्पाणं । संवर्मप्पे जिऐ जिं॥३६॥ मूल-(दुजय) दुर्जय एवा (पंचि दिआणि) पांडे इन्द्रियो, (कोह) क्रोध (माण') मान (माय') माया (तहेव) तथा (लोभच लोभ
: الف الف الف الله الله الملك المملكه
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