Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Sudharmaswami, Lakshmivallabh Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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भाषांतर अध्ययन९
॥४८८॥
कुटुम्बदेहादिक सर्व विनश्वरं, धर्म एवैकः शाश्वतः. इत्यादि साध्वीवाक्यैः प्रतिषुद्धा सा सती देवेन पुत्रदर्शनार्थ प्रार्थिता उत्सराध्य
एवमाह, भववृद्धिकरण प्रेमपूरेण ममालं, अतःपरं तु साध्वीचरणमेव शरणमित्युक्त्वा साध्वीसमीपे सा प्रवज्यां जग्राह. पन मूत्रम्
आ प्रमाणे ए विद्याधरने प्रतिबोध आपी ते पछी ते देव मदनरेखा प्रत्ये बोल्यो-'हे सति ! तुमने कहे-के तारुं हुं शुं पिय १४८८॥
| करुं? त्यारे मदनरेखाए कयुं के मने तो मुक्तिज मिया छे. वीजें कभुं मने प्रिय नथी. तथापि पुत्रनु मुख जोवाने उत्सुक हूं तो तमे
मने अहिंथी मिथिलापुरी लइ चालो त्या हुँ निवृत्त मनथी परलोकहित साधीश.' आटलुं बोली एटले ते देव ए मदनरेखाने मिथिलाJE पुरी लइ चाल्या, त्यां प्रथम मदनरेखा जिन चैत्योर्नु वंदन करी श्रमणीना उपाश्रयमा गइ, त्यां साध्वीओने बंदी आगळ वेठो त्यारे JE तेने प्रवर्तिनी मुख्य साध्वी ए एम प्रतिबोध को के-मूह बुद्धिवाळा लोको धर्म विना भवक्षयनी इच्छा करे छे अने मोहवश बनी
पुत्रादिकमा स्नेह राखे छे. आ संसारमा माता, पिता, भाइ, व्हेन, प्रियवधू, पियतम तथा पुत्र; इत्यादिक संबंधियोना अनेकवार | संबंध थइ गया. लक्ष्मी, कुटुंच, देह; इत्यादिक सपलं विनश्वर छे. धर्म एकज शाश्चत छे.' आवां साध्वीनां वचनो सांभळी ते सती
मदनरेखा प्रतिबुद्ध थइ. साथे आवेला देवे 'चालो हवे तमारा पुत्रने जोवा जइए? आम प्रार्थना करी त्यारे ते बोली-भवनी वृद्धि JE करे एवा मेमपूरनुं मारे हवे प्रयोजन नथी. अतः पर हवे पछी तो हुँ साध्वी आचरणज शरण लइश? आ प्रमाणे देवने कहीने
मदनरेखाए साध्वी समीपे पत्रज्या ग्रहण करी. | देवस्तां वंदित्वा स्वस्थाने जगाम, पश्मरथस्य गृहे यथा यथायं बालो वर्धते तथा यथा तस्यान्ये राजानोऽनमन्. ततः पद्मरथो राजा तस्य यालस्य नमिरिति नाम कृतवान् , वृद्धि ब्रजतस्तस्य पालस्य कलाचार्यसेवनात्सर्वाः कला: समा
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