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भाषांतर अध्ययन ॥५०६॥
स्वार्थभंगः कृतो नास्ति, ममाप्यत्र स्थाने एभिः स्वजनैः सहेयत्येव स्थितिः, केनाप्यधिकीकर्तुं न शक्यते, तस्मान्मम उत्तराध्यपन सूत्रम्
| मिथिलातो निःसरणं दीक्षा ग्रहणं सर्वथा मिथिलावास्तव्यलोकानामाकंदशब्दहेतुः कारणं च नास्त्येवेत्यर्थः ॥१०॥
अर्थ-(वे गाथानो भेलो अन्वय छे.) नमिराजा शुं बोल्या ते कहे छे-मिथिला नगरीमा चैत्य-उद्यानने विषये इंद्र! आ बधा JE| खग-पक्षियो क्रंदन कोलाहळ करे छे. चिति एटले पत्र पुष्प फळ इत्यादिकनो उपचय, ए जेमां सारं होय ते चैत्य-उद्यान; उद्याने DE देवगेहे च वृक्षे चैत्यमुदाहृतम्-बगीचो, देवालय तथा वृक्ष; ए त्रणे चैत्य कहेवाय छे एम अनेकार्थकोषमां वचन छे. ए मनोरम | तथा शीतल छाया अने पत्र पुष्प फळवडे युक्त होवाथी बहु पक्षिओनो सदा बहुगुण घणो उपकारक एवो वृक्ष ज्यारे वायुए हिय
माण एटले आम तेम दोलायमान कराय छे त्यारे ते दुःखित तेमज अशरण-बीजो कोइ आश्रय न मूजवाथी निराधार जेवा अने ३ | तेथी जे आत पीडा पामता पक्षिओ आम आनंद-कोलाहल करे छे. ९ ___अर्थः-अत्रे जे स्वजनना आक्रंदनने पक्षियोना आक्रंदनरूपे कथ्यु, पोते वृक्ष तुल्य थइ यावत्काल पर्यंत वृक्षनी स्थिति रही तावत्काल पर्यंत भोगादिकनी स्थिरता हती एट ले हवे आक्रंदादि दारुण शब्दनां तमे कहेला हेतु तथा कारण असिद्धज छे. केमके ए स्वजनोनो में लेश पण स्वार्थ भंग कर्यो नथी. मारी पण ए सर्वे स्वजनोनी साथे आटलीज स्थिति नियत होवाथी कोइथी ते अधिक करीन शकाय माटे मारु मिथिलामांथी नीसरी जq तथा दीक्षा ग्रहण सर्वथा आ मिथिलावासी लोकोना आनंद शब्दनं हेतु अथवा कारणछेज नहिं. १०
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