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उत्तराध्यपन सूत्रम्
॥४२५॥
विषयिणो जीवस्य मोक्षो न भवतीत्यर्थः. अत्र हेतुमार-जं इति यस्मात्कारणात्स गुरुकर्मा जीवो नैयायिक मार्ग
भाषांतर मोक्षमार्ग श्रुत्वा भूयो वारंवारं परिभ्रश्यति, संसारगर्तायां पततीत्यर्थः ॥ २५ ॥
अध्ययन अर्थ-अहीं आ पांच दृष्टांतमां क्रमथी-अपाय बहुलत्व १, तुच्छत्व २, आ यव्ययथी लाभ ३, हारण, तथा समुद्र जल दृष्टांत: २६
॥४२५॥ ए सकल जाणीने आ नरभवमा काम भोग-मुखथी अनिवृत्त कोई गुरु को जीवनो आत्मार्थ-मोक्ष 'अपराध्यति'-नष्ट थाय के; विषयी जीवनो मोक्ष थतो नथी. तेमां हेतु कहे छे कारण के ते गुरु कर्मा जीव नैयायिक मार्गने मोक्ष मार्ग तरीके सांभळीने फरी फरीने परिभ्रष्ट थाय छे संसाररुपी खाडमां पडे छे. २५
इंह कामनियल्स । अत्तठे नावरज्झई ॥ पूइदेहनिरोहेण । भवे देवित्ति में सुयं ॥ २६ ॥ मृलार्थ-[इह] आ (कामनिआस्स) कामभोगथी निवृत्त मनुष्यो (अत्तहे) आत्मार्थ [नावर ज्झइ नाश पामतो नथी, (पूइदेह निराहण) दुर्गंधी देहना नाश वडे (देवी) देवरूप (भवे) थाय छे, [त्ति ए प्रमाणे (मे) में (सु) सांभळ्यु छे. २६
व्या-हे शिष्य ! मे मयेति श्रुतं, इतिती किं? इहास्मिन्नरभवे कामानिवृत्तस्य जीवस्य लघुकर्मण आत्मार्थो मोक्षो न नश्यति, स च पुमान पूतिदेहनिरोधेनौदारिकदेहत्यागेन शतनपननविध्वंसनधर्मात्मकपिंडाभावेन देवो भवेदेवशरीरं प्राप्नुयात् ॥ २६ ।। ___ अर्थ-हे शिष्य! मे एम सांभळ्यु छे के-आ नरभवमांज कामथी निवृत्त लघुकर्मा जीवनो आत्मार्थ मोक्ष विनष्ट नथी थतो.
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