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उत्तराध्यपन सूत्रम्
॥४२६॥
१४२६॥
ते पुरुष पूति देह निरोध वडे करी अर्थात् आ औदारिक दुर्गंधी देहनो परित्याग करी पछी शातनपतन विध्वंसन धर्मात्मक पिंडनो भाषांतर अभाव थतां देव थाय छे एटले देव शरीरने प्राप्त थाय छे. २६
अध्ययन इंद्वी जुइ जसो वण्णो । आउं सुहमणुत्तरं ॥ जो जत्थ मणुस्सेसु । तत्थ से"उवजैइ ॥ २७ ॥ मूलार्थ-(अणुत्तर) साँस्कृष्ट एवी (हदी) ऋद्धि तथा (जुइ) द्युति तथा (जसो) यश (बणो) वर्ण (माउं) आयुष्य तथा (सुह) सुख आटली गवतो (जस्थ) जे (मणुस्सेसु) मनुष्योने विषे प्राप्त थाय छे, (तत्थ) त्यां (भुजो) फरीथी (से) ते (उपवजाइ) उत्पन्न थाय छे,२७ 96
व्या०-स निर्विषयी कामानिवृत्तो जीवस्तत्र मनुष्येषु भूयो वारंवारमुत्पद्यते, तत्र कुत्र? यत्र मनुष्येषु ऋद्धिः स्वर्णरूप्यरत्नमाणिक्यादिका भवंति तत्र, द्युतिर्दहस्य कांतिर्भवति, पुनर्यत्र यशो भवति, पराक्रमादुत्पन्नधर्मविशेषरूपं यश उच्यते, पुनर्यत्र वर्गो गांभीर्यादिगुणैर्वर्णनं, वर्णः श्लाघा, अथवा वर्णशब्देन गौरत्वादिगुणो वा, पुनर्यत्रायुः संपूर्ण प्रचुरं च भवति, पुनर्यत्र सुखं भवति, एतेषां सर्वेषामनुनरपदेन विशेषणं कर्तव्यं, अनुत्तरं सर्वोत्कृष्टं देवभवापेक्षयेतबक्तव्यम्. ॥ २७ ॥
अर्थ-ते निर्विषयी कामथी निवृत्त थयेलो जीव, जे मनुष्यमां ज्यां सुवर्ण रूप्यादि तथा रत्नमाणिक्यादि ऋदि होय, ज्यां घुतिदेहनी कांति होय वळी ज्या पराक्रमथी उत्पन्न थतो धर्म विशेष यश होय तथा वर्णगांभीर्यादि गुण प्रयुक्त वर्णन प्रशंसा, | अथवा वर्ण देहना गौरत्वादि होय, अने ज्यां संपूर्ण पुष्कळ आयुष्य होय तेम ज्यां मुख होय; आ ऋद्धि, धुति, यशः वर्ण, आयुः
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