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उत्तराध्य
पन सूत्रम्
॥४५०॥
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व्या- ततोऽपि च ततोऽसुरनिकायादुष्कृत्य निःसृत्य बहुं संसारमनुपदंति बहुलं संसारं भ्रमंति, पुनस्तेषां संसारे भ्रमतां योधिः सम्यक्त्वलब्धिः सुदुर्लभा भवति, कथं भूतानां तेषां? बहुकर्मले पलिसानां प्रचुरकर्मपंकखरंटितानां ॥ १५॥ अर्थ —ततः=असुरनिकायमांथी उपस्थित - नीसरेला बहु संसारमां अनुपर्यटन = भ्रमण करे छे. पुनः संसारमा भ्रमण करता ते |पुरुषोंने बोधी=सम्यक्त्व लब्धि सुदुर्लभ थाय छे केमके तेआं बहु कर्म लेपलिप्त बनेला होय छे अर्थात् पुष्कळ कर्मरूपी कादवथी खरडायेला होय छे तेथी तेमने बोधि लाभ अत्यंत दुर्लभ थाय छे. १५
कसिपि जो इमं लोगं । पंडिपुण्गं दलिन इक्केस्स ॥ तेावि से नैं संतुस्से ईइ दुप्पूरेंए ईमे अप्पा ॥१६॥ मुलार्थ – (जो) जे (इकस्स) एक माणसने (पडिपुण्णं) धनधान्यादिकथी पूर्ण [इम ] आ (कसिणपि) समग्र एवो पण [लोग' ] लोक (दलेज) आपीदे तो पण तेणावि) ते लोकना दान वडे पण [से] ते माणस [न संतुस्से] संतुष्ट थतो नथी १६
व्या० - यदि शब्द स्याध्याहारः, यदि कश्चिदिंद्रादिदेव एकस्य कस्यचित्पुरुषस्य प्रतिपूर्ण धनधान्यादिपदार्थैर्भृतं समस्तलोकं विश्वं दद्यात्तदापि तेन धनधान्यादिपरिपूर्ण समस्तलोकदानेन स पुरुषो न तुप्येत् इति हेतोरयमात्मा | दुःपूरकः, दुःखेन पूर्यत इति दुःपूरः, दुःपूर एव दुः पूरकः. ॥१६॥ पूर्वोक्तमर्थमेत्र दृढपति
अर्थ—अत्रे यदि शब्दनो अध्याहार छे यदि=जो कोइ इंद्रादि देव एकज कोइ पुरुषने, परिपूर्ण=धन धान्यादि पदार्थोथी भरेल | समस्तलोक = आ विश्व दीये तो पण ते धनधान्यादि पूर्ण समस्त लोक दाने करीने पण ते पुरुष संतुष्ट न थाय; आ हेतुथो आ आत्मा
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भाषांतर अध्ययन८
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