Book Title: Updeshpad Mahagranth Satik Part 01
Author(s): Jinendrasuri,
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
View full book text
________________
॥३६५॥
किंचि अलियंति ॥६६॥ इच्छामि तुम्हमंते निक्खमिउमिमाओ भवमसाणाओ। जं नवरि जणगलोयं पुच्छामि तओ गओ सगिह ॥६७॥ भणइ जणि अहम्मो ! भगवं अभिवंदिओजिणो वीरो। निसुओ य तस्स धम्मो कन्नसहो अमयसारिच्छो ॥६८।। सा तं पडिभणइ तओ जाया! कयलक्खणो तुम एगो । तं चेव य सकयत्थो अजं संपतपुण्णिच्छो ॥६९।। जेण जगदेवगुरुणो तिलोयचूडामणिस्स गुणनिहिणो। पयकमलं वच्छ ! तए निहालियं विय
सियमणेण ||७०॥ र भणियं मेहेण तओ इच्छामि भयवओ चरणमूलं । गिहवासाओ इमाओ निक्खमिउं तिक्खदुक्खाओ ।।७१।। खर
परसपहयचंपयलयव्व सा ज्झत्ति धरणिवीढम्मि । पडिया विहडियसव्वंगभूसणा भग्गसोहग्गा ॥७२॥ पवणेण सीयलजलेहि तह य बहलेहिं चंदणरसेहिं । सित्ता सुबहु तह तालविंटपरिवीइया संती ॥७३॥ उम्मीलियनयणजुया पञ्चागयचेयणा भणइ तणयं । उंबरपुप्फंव तुमं सुदुल्लहो कहवि मे लद्धो ॥७४।। ता जाव अहं जीवामि ताव एत्थेव निव्वओ
वससु । तुह विरहे जेण लहुं जीयं मे जाति कुलतिलय ! ॥७५।। परलोयंतरियाए मइ पवजं तुमं करेजासि । एवं च * कए सुंदर ! कयन्नुयत्तं कयं होइ ॥७६।। [मेघः-] जलबुब्बुयविजुलयाकुसग्गजलघयवडोवमाणम्मि । मणुयाण जीविए ।
मरणमग्गओ पच्छओ वावि ॥७७।। को जाणइ कस्स कहं होही बोही सुदुल्लहो एसो। ता धरियधीरिमाए अंबाए अहं विमोत्तव्वो ॥७८।। (धारिणी-) सुकुलुग्गयाओ सुमणोहराओ लायन्नसलिलसरियाओ। निम्मलकलालयाओ सुवनतारुन्नपुन्नाओ ॥७९॥ मियमहुरभासिणीओ लज्जामजायगुणमणोजाओ। सरइंदुसममुहीओ नीलुप्पलपत्तनयणाओ
॥३६॥

Page Navigation
1 ... 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438