Book Title: Updeshpad Mahagranth Satik Part 01
Author(s): Jinendrasuri,
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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PSI भन्नोन्नमहनिवेसियदिट्ठी परिजंपिउं लग्गा ॥५७।। भणसु अमच्च ! किमेयं दीसइ अच्छेरयं स पडिभणइ । देवो चिय
परमत्थं एत्थ वियाणाइ न उण अन्नो ॥५८।। जस्स गिहे. मंजूसा पाहरिया जस्स दत्तमुद्दाओ। तालाण जस्स अन्नो
को तत्थ वियाणगो होउ ।।५९।। रायावि मूढपत्तो भणइ ता तुज्झणाणविसओऽयं । सव्वालंकारे तो दिन्ने रन्ना भणइ
। सचिवो ॥६॥ ।।४०९॥
देव! मए विनायं एत्तियमेआओ जह सुयाओ मे। होही सव्वविणासो ण उणो इय वेणिछेयाओ ।।६।। तो पुत्तो संगुत्तो मंजूसाए तुहं समुवणीओ। जेणावराहठाणं ण होमि तुह पच्चए जणिए ॥६२॥ पुन्वभवंतरवेरी कोवि सुरो णूणं मज्झ वसणकए। एयागारधरेणं जेणेयमणुट्टियं सव्वं ।।६३।। संजायपच्चएहिं भणियं सव्वेहिं एवमेयंति । कहमन्नहेवमेसो सुरक्खिओ कुणइ कजमिणं ॥६४॥ देव ! अचितं कम्मं कयपडियारंपि जं फलइ एवं । चरियपि बुद्धिमंताण हरइ जं पसरमेयस्स ॥६५।। लद्धावसरं कत्थइ बलियं कम्मं तहा पुरिसयारो। एवं चियपरिणयवणीण जारिसं चरियमेएसि ॥६६॥ यथोक्तम्-“कत्थइ जीवो बलिओ कत्थइ कम्माइं होंति बलियाई। कत्थइ धणिओ बलवं धारणओ कत्थइ बलवं ॥१॥" एवं स गाणगब्भा नियनामसमाणचेट्टिओ होउं । पत्तो सिरिं तह जसं ससंककिरणञ्जलं लोए ॥६७॥
___ अथ संग्रहगाथागमनिका;-वेसाली नगरी, जितशत्रू राजा, सचिवस्तु ज्ञानगर्भस्तस्य । अन्यदा सभास्थस्य राजो 'नेमित्तागम'त्ति नैमित्तिकागमने पृच्छा राज्ञोऽभूत् । 'अत्थक्वत्थाणे' इति अतिकुतूहलपरतया अनवसरे आस्थाने सभायां
I४०९॥

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