Book Title: Updeshpad Mahagranth Satik Part 01
Author(s): Jinendrasuri, 
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 427
________________ १४१९॥ लच्छी वोच्छेयमेई दाणाइकिरियासु ॥६॥ ता एत्तो तह जत्तो कायव्वो जह सिरी समुग्घडइ । पणयजणवछियत्थाण करणओ कयचमक्कारा ।।७।। अणुसरिमो देसंतरमारोहेमो परक्कमगिरिम्मि । ना दुल्लहा भविस्सइ अम्हं जणवल्लहा लच्छी ।।८। कयपत्थाणा जा सत्थसन्निवेसं गया पढमगस्स । समुवट्टिओ महंतो विहिणो वसओ खणेण निही ॥९॥ तं गिहिऊण गेहं समागओ तदुचिएसु कजेसु । लग्गो बीओ पुण जलहिपारगमणेण लद्धधणो ॥१०॥ केत्तियकालाओ तुलाए जीवमाराविऊण नियगेहं । पत्तो सोवि य सधणोचियासु किरियासु परिलग्गा ॥११॥ जाओ पुरे पवाओ जह एगो पोढपुन्नपन्भारो। संपत्तसयलवंछियलच्छीविच्छड्डुओ सुहिओ ॥१२॥ बीओ पुण दारुणजलहितरणसंजायगरुयधणरिद्धी। अइनिद्धबंधुसबंधबंधुरो भुंजइ भोगे ॥१३।। ता एएसिं मज्झा पढमो देवेण संजुओ बाढं । अखलियपसरो बीओ वि संजुओ पुरिसगारेण ॥१४॥ निसुओ रन्ना अइकाउगाओ सद्दाविया सहाए ते । पुट्ठा एस पवाओ किमन्नहा वा तहावत्ति ।।१५।। भणियं देव! न वितहो जणप्पवाओ जओ पायं । अइपच्छन्नं पि कयं कजं सजो वियाणाइ ।।१६।। सयमेव तओ तेसिं रन्नाविन्नासणा समारद्धा। पढमो एगागि च्चिय निमंतिओ भोयणस्स कए ॥१७॥ भणिया महाणसणरा जह अञ्ज उ वक्खडो न कायव्वो। एयस्स पुन्नवसजायपत्तमम्हेहि भोत्तव्वं ।।१८॥ पत्ते भायणसमए देवीसंपेसिओ अह महल्लो। विन्नवइ जहा देवीगिहम्मि तुम्हेहिं भोत्तव्वं ।।१९ । किं पुण निमित्तमिहि पत्तो जामाउओ नियपुराओ। सुओयणाइभेयं पसाहियं भोयणं तस्स ॥२०॥ ता देव ! तए सद्धि सेा सेहग्गं लहेइ भुंजतो। तो भुत्ता वीसत्था संता तं भोयणं सब्वे ॥२१॥ बीओ य अन्नदियहे निमंतिओ भोयणत्थमह ॥४१९||

Loading...

Page Navigation
1 ... 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438