Book Title: Tulsi Prajna 2006 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ : षड्द्रव्य की अवधारणा अपने आप में मौलिक ही है। अन्य दर्शन परम्परा से उसका आंशिक साम्य ही देखा जाता है। इसका मूल कारण यह है कि उन्होंने इस अवधारणा का विकास अपनी मौलिक पंचास्तिकाय की अवधारणा से किया है । षट्जीवनिकाय की अवधारणा पंचास्तिकाय के साथ-साथ षट्जीवनिकाय की चर्चा भी जैन ग्रन्थों में उपलब्ध है। ज्ञातव्य है कि पंचास्तिकाय में जीवास्तिकाय के विभाग के रूप में षट्जीवनिकाय की यह अवधारणा विकसित हुई है। षट्जीवनिकाय निम्न है - पृथ्वीकाय, अप्काय, वायुकाय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय । पृथ्वी आदि के लिए 'काय' शब्द का प्रयोग प्राचीन है। दीघनिकाय में अजितकेशकम्बलिन के मत को प्रस्तुत करते हुए - पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय और वायुकाय का उल्लेख हुआ है। उसी ग्रन्थ में पकुधकच्चायन के मत के सन्दर्भ में पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, सुख, दुःख और जीव- इन सात कार्यों की चर्चा है। इससे यह फलित होता है कि पृथ्वी, अप आदि के लिए काय संज्ञा अन्य श्रमण परम्पराओं में प्रचलित थी । यद्यपि काय कौन-कौन से और कितने हैं इस प्रश्न को लेकर उनमें परस्पर मतभेद थे। अजितकेशकम्बलिन पृथ्वी, अप, तेजस् और वायु- इन चार महाभूतों को काय कहता था तो पकुधकच्चायन इन चार के साथ सुख, दुःख और जीव इन तीन को सम्मिलित कर सात काय मानते थे। जैनों की स्थिति इनसे भिन्न थी- वे जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल - इन पांच को काय मानते थे, किन्तु इतना निश्चित है कि उनमें पंच अस्तिकाय और षट्जीवनिकाय की अवधारणा लगभग ई.पू. छट्ठी - पांचवी शती में अस्तित्व में थी । क्योंकि आचारांग एवं सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में इन षट्जीवनिकायों का और ऋषिभाषित के पार्श्व अध्ययन में पंच अस्तिकायों का स्पष्ट उल्लेख है। इन सभी ग्रन्थों को सभी विद्वानों ने ई.पू. पांचवी - चौथी शती का और पालीत्रिपिटक के प्राचीन अंशों का समकालिक माना है । हो सकता है कि ये अवधारणायें क्रमशः पार्श्व और महावीरकालीन हो । ज्ञातव्य है कि पंचास्तिकाय की अवधारणा मूलतः पार्श्व की परम्परा की रही है - जिसे लोक की व्याख्या के प्रसंग में महावीर की परम्परा में भी मान्य कर लिया गया था । लोक के स्वरूप की व्याख्या के सन्दर्भ में महावीर ने पार्श्व की अवधारणाओं को स्वीकार किया था, जो उल्लेख भगवतीसूत्र में है, अतः इसी क्रम में उन्होंने पार्श्व की पंचास्तिकाय की अवधारणा को भी मान्यता दी होगी। 1 अतः मैं पं. दलसुखभाइ मालवणियाँ के इस कथन से सहमत नहीं हूँ कि पंचास्तिकाय की परम्परा का विकास बाद में हुआ। हां, इतना अवश्य सत्य है कि महावीर की परम्परा तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - Jain Education International जून, 2006 For Private & Personal Use Only 7 www.jainelibrary.org

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