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(2) गुरु- गुरु से कभी विवाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुरु से विवाद
करना अविनीतता का प्रतीक होता है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि यदि किसी समय गुरु कौए को सफेद भी बताए तो भी शिष्य को उनकी बात का प्रतिवाद नहीं करना चाहिए। एकान्त में उसका कारण
पूछना चाहिए 19. असत्य नहीं बोलना-(मुसं ण बूया) यथार्थ का प्रतिपादन करना अर्थात् जो जैसा है उसका उसी रूप में प्रतिपादन करना सत्य कहलाता है। धर्म के जितने भेदप्रभेद सभी सम्प्रदायों के द्वारा व्याख्यायित हुए हैं उनमें सत्य का स्थान प्रमुख है। सभी ने असत्य का निषेध किया है। भगवान महावीर ने तो सत्य को लोक का सारभूत तत्त्व बताते हुए उसे भगवान की उपमा दी है। सत्य को सर्वाधिक महत्त्व देने का कारण यह है कि इसकी आराधना के बिना शेष सारे धर्म, नियम आदि की आराधना संभव नहीं है।
एक श्रावक ने मृषावाद को छोड़कर सभी अणुव्रत ग्रहण किए। कुछ समय पश्चात् एक-एक कर सभी व्रत तोड़ने लगा। जब उसके मित्र ने कहा कि तुम ग्रहण किए हुए व्रतों को क्यों तोड़ रहे हो? तब वह कहता है 'नहीं तो, मैं व्रतों को कहां तोड़ रहा हूँ ?' मित्र बोला-'तुम झुठ बोलते हो।' उसने कहा-'मैंने झूठ बोलने का त्याग कब किया था?' इस प्रकार सत्य के अभाव में उसने सारे व्रत तोड़ डाले। सत्य की वचनीयता सापेक्ष होती है। सत्य वही वक्तव्य है जो अनवद्य, मृदु और संदेह रहित हो। सत्य को सीमा में बांधते हुए व्याख्याकारों ने यहाँ तक कह दिया-सत्य वही है जो दूसरों का उपघात नहीं करता
20. सरल और स्पष्ट बोलना- भाषा सरल और स्पष्ट होनी चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि सामान्य बुद्धि के व्यक्तियों के सामने ऐसे कठिन और दुरूह शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए जिसे वे समझ ही न सके। कुछ शब्द व्यर्थक होते हैं। इससे श्रोता संशय में पड़ जाता है कि इसका अर्थ यह है या दूसरा। इस प्रकार के संशय पैदा करने वाले शब्द नहीं बोलने चाहिए। सरल का अर्थ कपट रहित या ऋजु भी होता है। इसमें यथार्थ भावों को ढकने के लिए शब्दों का जाल नहीं बुना जाता।
21. हिंसाकारी वचन नहीं बोलना-(जं छणं तं ण वत्तव्वं)66 जैन दर्शन में हिंसा की व्याख्या बड़े विस्तृत रूप से की गई है। तीन कारण (करना, कराना और अनुमोदन करना) तथा तीन योग (मन, वचन और काया) से इसके नौ प्रकार हो जाते हैं। जिस प्रकार किसी की हिंसा करना पाप माना गया है उसी प्रकार वचन से कहना भी उतना ही पाप है। वाचिक हिंसा के तीन रूप इस प्रकार हो सकते हैं
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तुलसी प्रज्ञा अंक 131
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