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प्रत्येक जीव में संयम एवं सदाचार सहज ही उत्पन्न हुआ तथा आत्मसंयम एवं भेदभाव से रहित व्यक्ति में अच्छे संस्कार का होना सहज ही है और यही नैतिकता है। इस प्रकार श्रमण परम्परा में आत्महितकारी उपदेश का प्रादुर्भाव होता रहा जिससे समानता एवं स्वतंत्रता के साथ सामाजिक एकता की वृद्धि होती रही है।
साहित्यिक योगदान - किसी भी देश अथवा संस्कृति के विकास में साहित्य का महत्त्वपूर्ण योगदान है। साहित्य समाज का दर्पण होता है, जिसमें समाज की सभी छोटीबड़ी खूबियों एवं कमियां परिलक्षित होती हैं। साहित्य से समाज में व्याप्त सामाजिकता, रीतिरिवाज, संस्कृति एवं कला का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। हमारी प्राचीन सभ्यता का ज्ञान हमें साहित्य के द्वारा ही प्राप्त होता है। पुराकाल में शिलालेख, स्तम्भ लेख, स्तूप एवं गुफालेखादि भी साहित्य के विकल्प के रूप में ही निर्मित किये गये, इनके द्वारा हमें तात्कालीन सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक स्थिति का ज्ञान सहज ही हो जाता है। श्रमण परम्परा में जैन एवं बौद्ध दोनों ने विपुल मात्रा में साहित्य सृजन किया, जिस कारण अद्यापि साहित्य का लाभ समाज को प्राप्त हो रहा है। जैनाचार्यों में सर्वप्रथम गणधर देव को भगवान की दिव्यध्वनि के मंथन एवं सृजन का श्रेय प्राप्त होता है। प्राप्त जैन आगम के सृजन में धरसेनाचार्य, कुन्दकुन्दाचार्य, उमास्वाति आदि से लेकर अद्यापि जैन श्रमण अपनी लेखनी द्वारा भारतीय संस्कृति को परिष्कृत कर रहे हैं। पुराणों में वर्णित द्वीप, समुद्र, पर्वत, राज्य एवं समाज का वर्णन, तात्कालीन परिस्थिति का ज्ञान हमें साहित्य द्वारा ही होता है। श्रमण परम्परा में आगमिक, आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं आचार प्रमुख सभी प्रकार के साहित्य का सृजन हुआ। इस प्रकार प्राणी मात्र के कल्याण की बात वर्णित कर एवं भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित कर श्रमणों ने अमूल्य योगदान दिया है।
भाषा विषयक योगदान - वैदिक काल में वेद एवं पुराणों की भाषा प्राकृत एवं संस्कृत थी तथा बौद्धों की भाषा भी संस्कृत के साथ मुख्य रूप से पाली होने के कारण उनके द्वारा प्रदत्त उपदेश जन-सामान्य में प्रचलित नहीं हो सके। यद्यपि जैन श्रमणों की भाषा मूलत: प्राकृत थी तथापि संस्कृत के साथ-साथ अन्य लोक भाषा यथा मागधी, अर्धमागधी, सौरसेनी आदि जन सामान्य की भाषा में अर्थात् लोकभाषा में उपदेश देने के कारण श्रमणों द्वारा प्रदत्त उपदेश जन-जन तक पहुंचा जिसका सीधा असर उनके आत्मपरिवर्तन से परिलक्षित होता है। भाषा माध्यम को अधिक महत्त्व न देने के कारण अर्थात् सम्प्रेषण की अपेक्षा सम्प्रेषित को अधिक महत्त्व देने के कारण श्रमणोपदेश जनजन तक पहुंचा जो लोक कल्याणकारी था।
उपसंहार - जैन-धर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान है- चिन्तन में औदार्य। जैन
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006 -
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