________________
राजनीतिक दर्शन
गांधी और मार्क्स दोनों के राज्य सम्बन्धी दृष्टिकोणों में अद्भुत साम्य है। दोनों ने राज्य का विरोध किया और उसके उन्मूलन का प्रयास किया है। यद्यपि दोनों के आक्रमण केन्द्रीय रहे हो। गाँधी की दृष्टि में यह हिंसा के संकेन्द्रित और सुव्यवस्थित रूप का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिये गाँधी जी ने राज्य की शक्तियों में किसी भी प्रकार की वृद्धि को सन्देह की दृष्टि से देखा है, क्योंकि इसका परिणाम शक्ति का केन्द्रीकरण
और इसके फलस्वरूप उसका दुरुपयोग होता है। गाँधी का कथन है कि "वह राज्य पूर्ण और अहिंसात्मक है जहाँ जनता कम से कम शासित होती है।''30
इसके विपरीत मार्क्स राज्य को वर्गदमन के साधन के रूप में स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार राज्य अनिवार्यतः बुराई है, क्योंकि वह वर्ग की उपच है। वर्गहीन समाज के आविर्भाव के साथ ही राज्य पुरावशेषों के संग्रहालय में डाल दिये जायेंगे। इस प्रकार गाँधी और मार्क्स अपने राजनीतिक विचारों की दृष्टि से अराजकतावादी कहे जा सकते हैं। वे दोनों ही किसी राज्य संपन्न से विहरित और हर प्रकार के शोषण से मुक्त वर्गहीन समाज के आदर्श की कल्पना करते हैं। गाँधी के अनुसार पूर्ण अहिंसा के आधार पर गठित और संचालित समाज ही शुद्धता अराजकता है। मार्क्स पहले मध्यवर्गीय राज्य समाप्त करना चाहते हैं और फिर उसके स्थान पर सर्वहारा के अधिनायकत्व पर आधारित "अर्थ-राज" स्थापित करना चाहते हैं। मार्क्सवाद के अन्तर्गत एक ऐसा अर्थपूर्ण और सर्वग्राही प्रजातंत्र होगा, जो बिना किसी विद्वेष और कड़वाहट से सभी वैचारिक मतभेदों को भूल पाने में समर्थ होगा। गाँधी के राम राज्य का आदर्श एक ऐसे समाज की कल्पना करता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति सत्य के निदेशों का पालन करता है
और अपने अन्तःकरण की आवाज से उद्घाटित नैतिक नियम के द्वारा अनुशासित होता है। जब लोग सत्य और सद्गुण के द्वारा अपने कार्यों की ओर प्रेरित होंगे, तो राज्य की आवश्यकता ही नहीं रह जायेगी। व्यक्ति उन्मुक्त तथा समतापूर्ण जीवन व्यतीत करेंगे। यह आदर्श सर्वोदय समाज असंख्य स्वायत्तशासी, आत्म निर्भर गांवों से मुक्त होगा, जो अपने सभी कार्यों की व्यवस्था यहाँ तक कि बाहरी विश्व से अपनी सुरक्षा में भी पूर्ण समर्थ होगा।
इस सम्बन्ध में गांधी की अपेक्षा मार्क्स अधिक स्वतंत्रदर्शी है, क्योंकि अधिक कट्टरता से उनका आग्रह है कि राज्य विहिन और वर्ग विहीन समाज के परम लक्ष्य की सिद्धि अवश्यंभावी है। उन्हें पूर्ण विश्वास है कि आदर्श उपलब्ध है जबकि गांधी के लिए आदर्श स्पृहनीय है।
70
-
-
तुलसी प्रज्ञा अंक 131
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org