Book Title: Tulsi Prajna 2006 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 74
________________ किसी वस्तु से नहीं, वरन् यंत्र के लिए विवेकशून्य सनक के प्रति था। आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन करने वाले मूल उद्योगों के राष्ट्रीकरण का उन्होंने कहा था। मार्क्स ने भी इस तथ्य की ओर संकेत किया है कि जब तक यंत्र को मनुष्य के दास के रूप में प्रयुक्त नहीं किया जायगा, तब तक पूंजीवाद की असह्य बुराइयों का अस्तित्व कायम रहेगा। गाँधी का श्रम सम्बन्धी दृष्टिकोण मार्क्स से बहुत अधिक भिन्न है। पूंजी और श्रम की परस्पर निर्भरता की उनकी धारणा, उनके धार्मिक दृष्टिकोण और समस्त जीवन की एकता में विश्वास पर आधारित है। गाँधी ने उस दीन-हीन असहायों को "दरिद्रनारायण" की संज्ञा दी है। इसके विपरीत श्रमिक को शासित के वर्ग के रूप में स्वीकार करते है? मार्क्स पूंजीपतियों के निर्मम शोषण के प्रति श्रमिक वर्ग को सावधान करने के लिए "अतिरिक्त मूल्य" के सिद्धान्त की स्थापना करते है। यद्यपि गाँधी मार्क्स की भांति ही उत्पादन की प्रक्रिया में श्रम की सर्वोच्चता को स्वीकार करते हैं, लेकिन श्रमिक की नैतिक स्वाधीनता और आवश्यक प्रतिष्ठा पर अधिक ध्यान देते हैं। गांधी कहते हैं कि शोषित होने से इनकार करके श्रमिक यदि अपनी प्रतिष्ठा के आग्रह पर दृढ़ रहे तो पूंजीवाद अपनी पूर्ण असहायता की स्थिति तक पहुंच जायेगा। अतः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि "पूंजीवाद श्रम का दास है, स्वामी नहीं। 15 वर्ग संघर्ष और क्रान्ति - ____ मार्क्सवादियों के अनुसार अब तक विद्यमान समस्त समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है । स्वाधीन और गुलाम, कुलीन और अकुलीन, स्वामी और दास, सेठ और कमजोर, एक शब्द में कहें तो उत्पीड़क, निरन्तर एक दूसरे के विरुद्ध कभी प्रकट और परीक्षा रूप से निर्बाध एक ऐसे युद्ध में लगे रहते हैं जिसका अन्त सदैव या तो क्रान्तिकारी पुनर्गठन में होता है या संघर्षरत वर्गों के सामूहिक विनाश में। मार्क्स के अनुसार आर्थिक हित, वर्ग की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। यद्यपि मार्क्स पर्याप्त सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त अनेक वर्गों को केवल दो में विभाजित किया जा सकता है। एक तो वह जो उत्पादन के साधनों का नियमन करता है और जो प्रभावी वर्ग होता है तथा दूसरा जिसका शोषण किया जाता है जो निर्धन वर्ग है ।" वर्गों के मध्य प्रतिद्वन्द्विता अनिवार्य होती है। इन अन्तर्विरोध के माध्यम से या विरोधियों के संघर्ष के माध्यम में वाद और प्रतिवाद के क्रम से प्रगति या संवाद उपस्थित होता है। सर्वहारा की अन्तिम विजय की अपरिहार्यता में मार्क्सवादियों का विश्वास प्रचार के रूप में तो ठीक हो सकता है किन्तु विज्ञान के रूप में यह संतोषजनक नहीं हैं। तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006 - - 69 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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