Book Title: Tulsi Prajna 2006 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 77
________________ होते हैं। अतः मनुष्य के एतद्सम्बन्धित वातावरण में परिवर्तन के द्वारा ही मानव प्रकृति में कोई परिवर्तन संभव हो सकता है। इसके विपरीत गाँधी मानव प्रकृति को दुष्ट और समाज की निर्मित मानने वाले दोनों ही धारणाओं का खण्डन करते हैं। गाँधी के अनुसार मनुष्य मूलतः नेक प्राणी है। देवत्व का एक अंश होने के कारण उनके दैवी गुणों का अधिष्ठान होता है । सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन मानव प्रकृति में भी कुछ परिवर्तन ला सकता है। लेकिन वे मात्र सतही होते हैं। ऐसे तात्विक नहीं कि बुराइयों को निष्कासित कर सके । दृढ़ आत्मानुशासन प्रशिक्षण द्वारा सूक्ष्म दृष्टि का सम्बन्ध मानव प्रकृति की खोट के शुद्धिकरण में सहायक हो सकता है। तात्विक होने के लिए किसी रूपान्तरण का आरंभ से ही प्रभावशाली होना अति आवश्यक है। इस सम्बन्ध में गांधी मार्क्स से आगे है। 2 गाँधी के अनुसार मानव प्रकृति सत् और असत् दोनों ही तत्वों का मिश्रण है। लेकिन उसका सत् उसके असत् पर सदैव हावी होता है। मार्क्स निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं कि मनुष्य की आर्थिक अवस्था में प्रगति ही राज्य के जन्म उसके विकास उसके स्वभाव में परिवर्तन और अंततः उसकी समाप्ति की ओर उन्मुख करती है। गाँधी ने भी मानवता को राज्यविहीन अहिंसात्मक समाज में प्रविष्ट कराते हुए राज्य के लोप की कल्पना की है, किन्तु उन्होंने इसे मानव जाति के प्रगतिशील नैतिक उत्थान का परिणाम सिद्ध किया है। कार्य पद्धति और दार्शनिक नियतिवाद : मार्क्सवाद साधन की समस्या के यथोचित समाधान में असफल रहा है 3 मार्क्स के अनुसार क्रान्ति की उपलब्धि अधिकतम कल्याण है । लक्ष्य तक शीघ्र पहुँचने के लिए आवश्यक हिंसा या दमनकारी साधनों का सहारा भी उनके लिए आवश्यक है । इसलिए मार्क्सवादियों का कहना है कि निश्चित रूप से साध्य ही साधन के औचित्य को सिद्ध करता है। मार्क्स ने तो हिंसा को साम्यवादी क्रान्ति का गीत घोषित किया है। मार्क्सवादी खुले आम घोषणा करते हैं कि उनके लक्ष्य की प्राप्ति, सम्पूर्ण विद्यमान सामाजिक व्यवस्था की बलात् समाप्ति से ही संभव हो सकती है।34 ठीक उसी स्वर में लेनिन भी घोषित करते हैं। कोई भी साधन जो उद्देश्य की ओर अग्रसर करता है चाहे कितना ही उद्धत और अशान्तिदायक हो, क्रान्तिकारी के रूप में मुझे पंसद है। गाँधीवाद एक विश्वव्यापी वर्ग-विहीन समतुल्य सामाजिक व्यवस्था की स्थापना के लिए शान्तिपूर्ण अहिंसात्मक उपायों का समर्थन है, जिसके अन्तर्गत बुराई और शान्ति का प्रतीक राज्य अपने आप लुप्त हो जाएगा। इसमें विश्वव्यापी सामंजस्य पर आधारित शाश्वत प्रगति होगी मात्र अहिंसात्मक साधनों को अपनाने से ही वर्तमान सामाजिक ढांचे में स्थायी और तुलसी प्रज्ञा अंक 131 72 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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