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"गाँधी एवं मार्क्स : एक विश्लेषण"
ओम कंवर राठौड़
__ हर चिन्तक या विचारक अपने युग की उपज होता है। प्रत्येक युग जो इतिहास के परिवेश में बंधा होता है, अपनी कुछ समस्याएँ रखता है। उस युग
और समाज के लोग इन समस्याओं के साथ जूझते हैं। कुछ समस्याएँ ऐसी होती हैं जिनका निदान अपने युग में ही हो जाता है लेकिन कुछ समस्याएँ ऐसी होती हैं जो अपने युग में आंशिक रूप से हल होने के बाद समस्याओं की एक नयी फसल ही पैदा कर देती है। हर युग का इतिहास अपनी समस्याओं के साथ इस तरह करवटें लेता रहता है जो इन समस्याओं, चुनौतियों और त्रासदी का विश्लेषण कर सके, वही चिन्तक है। इस तरह युग दर युग समस्याओं का सिलसिला चलता रहता है और विचारकों की वीथिका सजती रहती है। इन विचारकों में कुछ विचारक ऐसे होते हैं। जिनकी प्रांसगिकता अपने युग की सीमित अवधि के लिए होती है लेकिन कुछ विचारकों की प्रांसगिकता कई युगों तक बनी रहती है। ऐसे विचारक सनातन विचारक बन जाते हैं।
संसार के जीवन-दर्शन को प्रभावित करने वाले महान् पुरुषों में गाँधी एवं मार्क्स दोनों का बहुत ही ऊँचा स्थान है। दोनों ने ही मनुष्य के सामाजिक जीवन को गहराई तक प्रभावित किया है। दोनों ने ही मनुष्य की जीवन की विषमता, गरीबी और शोषण से मुक्त कराने का प्रयत्न किया। दोनों ही सत्यनिष्ठा के धनी थे। गाँधीजी ने जीवन भर व्यावहारिक रूप में सत्य के आदर्श को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने शोषण और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करते-करते जीवन दर्शन को निखारा है। गाँधीजी ने यथा सम्भव अपने को वाद-विवादों एवं झगड़ों से दूर रखा और युग-युग से अनुभूत सत्यों को वर्तमान के संदर्भ में रखकर उनके व्यावहारिक पक्ष पर बल दिया। यह
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006
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