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विश्वास है कि केन्द्रित उत्पादन और वितरण की व्यवस्था से आर्थिक विषमता मिटाई जा सकती है और गांधी का यह विश्वास है कि विकेन्द्रित उत्पादन की व्यवस्था से ही आर्थिक विषमता मिटाई जा सकती है। केन्द्रीकरण के मूल में ही हिंसा बैठी हुई है जिसका वीभत्स रूप आज हम दुनिया के औद्योगिक राज्यों में देख रहे हैं। गाँधी पूंजीवादी व्यवस्था को बदलने के लिए श्रमिकों में अहिंसक-असहयोग का प्रशिक्षण देना चाहते हैं जिसमें श्रमिक अपनी ही शक्ति का विकास कर परिस्थिति में अनुकूल परिवर्तन ले आते हैं, गाँधी ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त के द्वारा आय का समान वितरण करना चाहते हैं। वे तो वकील, डॉक्टर, हाथ-कारीगर और मेहतर-सबके समान वेतन की बात करते हैं। गाँधी का सिद्धान्त समाजवादियों के सिद्धान्त की तुलना में काफी दूरदर्शितापूर्ण और व्यावहारिक है। वर्ग-शुद्धि और सामाजिक सामंजस्य का आदर्श
मार्क्सवादी वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त को गाँधी अग्राह्य सिद्ध करते हैं। वे समस्त मानव जाति के सामान्य हित की भावना से आरंभ करते हैं और वर्ग-संघर्ष की धारणा के स्थान पर सामाजिक हित और सामंजस्य के यथेष्ट तर्क संगत सिद्धान्त की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। गाँधी वर्ग भेद के स्थान पर वर्ग शुद्धि के हिमायती हैं। इसका उद्देश्य बलपूर्वक पूंजीपतियों की सम्पत्ति का हरण न होकर, सम्पूर्ण जन समुदाय द्वारा जागरूक
और स्वच्छंद होकर सम्पत्ति का सदुपयोग है। यह आदर्श शान्तिपूर्ण सामाजिक पुनर्निर्माण की ओर अर्थमुक्त सामूहिक नैतिक क्रान्ति द्वारा ही पूर्ण हो सकता है।
सामाजिक योजना के सम्बन्ध में मार्क्स और गाँधी दोनों ही सामाजिक समता और मानव स्वतन्त्रता के आदर्श को स्वीकार करते हैं। लेकिन इसकी पूर्ति के लिए अपनाए गए दोनों दृष्टिकोण में पर्याप्त अन्तर है। मार्क्स क्रान्तिकारी परिवर्तनों के लिए यदि आवश्यक हो तो हिंसा पर जोर देते हैं, जबकि गाँधी का विश्वास है कि वर्गहीन समाज की स्थापना प्रेम और अहिंसा की गत्यात्मक रूपान्तरण शक्ति द्वारा की जा सकती है। धर्म और नैतिकता -
गांधी के लिए धर्म और नीतिशास्त्र इतनी घनिष्ठता से परस्पर सम्बद्ध है कि करीब-करीब परस्पर परिवर्तनीय शब्द बन जाते हैं। उनके अनुसार धर्म आधारभूत नैतिकता का चट्टानी तल है। उन्होंने कहा है, "मैं आत्म ज्ञान, ईश्वर से साक्षात्कार और मोक्ष चाहता हूँ। उनका विश्वास है कि सेवा में और बलिदान का एक सच्चा धार्मिक जीवन ईश्वरीय सृष्टि सेवा में है। विश्व के सभी महान् धर्मो में पाए जाने वाले समान
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तुलसी प्रज्ञा अंक 131
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