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स्थान है। इतिहास-निर्माण की दृष्टि से पुरातत्त्व विषयक सामग्री का सर्वाधिक महत्त्व है । यह सामग्री अपने आप में एक प्रामाणिक इतिहास है । इसके द्वारा अनेक सन्देहों, विवादों तथा भ्रमों का निराकरण होकर इतिहासकारों को निर्विवाद दृष्टि प्राप्त होती है । इतिहासकार के समक्ष प्रतिपाद्य विषय और उससे सम्बद्ध विभिन्न घटनाओं की सत्यता निरूपित करने के लिए प्रमाण रूप में जो तथ्य वर्तमान रहते हैं उन्हीं को पुरातत्त्व के नाम से कहा गया है।
श्रमण परम्परा के अन्तर्गत श्रमणानुयायियों ने तत्कालीन धार्मिक एवं सामाजिक परिस्थितियों को पुनर्जीवित रखने के लिए अभिलेख, शिलालेख, स्तम्भलेख, मूर्तिलेख, स्तूपलेख, गुफालेखादि लेखों का निर्माण करवाया, जिससे तात्कालीन परिस्थितियों का स्पष्ट ज्ञान अद्यापि वर्तमान बना हुआ है। इस प्रकार श्रमण परम्परा का सांस्कृतिक कलात्मक दृष्टि से योगदान अकथनीय है ।
सामाजिक योगदान - श्रमण परम्परा ने भारतीय संस्कृति के साथ-साथ समाज की बुनियाद को भी सुरक्षित रखा, उसे अनेकानेक मतवाद, पंथवाद, जातिवाद और ऊंच-नीच से परे मानव मात्र कहा तथा सभी आत्माओं को समानता का उपदेश दिया। श्रमण परम्परा में जातिवाद भेद-भावों को अद्यतन प्रश्रय नहीं मिल सका, कारण श्रमण परम्परा ने हमेशा 'मनुष्य जन्म से नहीं, कर्म से महान् बनता है' इस तथ्य को स्वीकारा तथा सभी आत्माऐं समान हैं, कोई छोटा-बड़ा नहीं होता। इस प्रकार का उपेदश दिया, जिससे ऊंच-नीच का व्यवहार लुप्त प्रायः रहा । तीर्थंकर आदिनाथ ( ऋषभ देव ) से लेकर महावीर पर्यन्त सभी तीर्थंकर जाति से जैन नहीं थे, अधिकतर क्षत्रिय परन्तु जिनेन्द्र देव के उपासक एवं मार्गानुयायी होने के कारण उन्होंने स्वयं जितेन्द्रियपना प्राप्त किया तथा भगवान बने ।
श्रमण परम्परा ने प्रारंभ से ही वैदिक परम्परा में विद्यमान कर्मकाण्डों, अंधविश्वासों का विरोध किया। यज्ञ एवं यज्ञ से होने वाली हिंसा के विपरीत अहिंसा का प्रचार किया तथा श्रावकों को अष्टमूलगुण एवं छह आवश्यक पालन करने का उपदेश दिया जिससे समाज में विद्यमान कुरीतियों को मानने वाले वैदिकों को सोचने पर मजबूर होना पड़ा और इसी कारण वैदिकों ने श्रमणों का नास्तिक कहकर विरोध किया ।
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह तथा मांस, मद्य (शराब) और मधु (शहद), इन आठों के त्याग रूप अष्टमूल गुण पालन करने से समाज में अहिंसा एवं सदाचार का वातावरण बना और समानता का पाठ सुन सभी जीव एकता के सूत्र में बंधे, जिससे सामाजिक एकता परिपक्व हुई। साथ ही समाज में नैतिकता का विकास भी हुआ । देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान- इन छह कर्मों के पालन से
तुलसी प्रज्ञा अंक 131
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