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नहीं करना चाहिए।" अनेक बार ज्ञानी व्यक्ति भी बोलने में लिंग, वचन या वर्ण सम्बन्धी भूल कर सकता है अर्थात् वाक्य रचना में कोई त्रुटि रह सकती है या जो बात जैसे कहनी चाहिए उसे प्रमादवश अन्यथा कह सकता है तो उसे सुनकर उपहास नहीं करना चाहिए। __ हंसी में भी दूसरों के दोषों की भी अभिव्यक्ति करना पाप कर्म के बन्धन का हेतु होता है। इसलिए पाप कर्म की स्थापना करने वाले कुप्रावचनिकों की भी मजाक करते हुए ऐसे शब्द नहीं कहने चाहिए जिससे उनके मन में अमर्ष पैदा हो। उदाहरणार्थ 'अरे! आपके व्रत तो बड़े अच्छे हैं।' सोने के लिए मृदु शय्या, प्रात:काल उठते ही अच्छे-अच्छे पेय, मध्यकाल में भोजन आदि-आदि, इस प्रकार सुविधापूर्वक जीवन यापन करते हुए भी आपको मोक्ष प्राप्ति हो जाती है।
13. शालीनता रखना- व्यक्ति की पहचान उसकी बोली से होती है। शिष्ट व्यक्ति दूसरों के लिए तुच्छ और अपमानित करने वाले शब्दों का प्रयोग नहीं करता। विशेषतः सम्माननीय व्यक्तियों के लिए तू-तू जैसा अप्रिय और अनिष्ट वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए।" ___ 14. आत्म प्रशंसा नहीं करना --- (अत्ताणं न समुक्कसे) आत्म प्रशंसा अभिमान का ही एक पहलु है। इसके द्वारा व्यक्ति अपना उत्कर्ष प्रदर्शित करने का प्रयास करता है किन्तु यह उसकी तुच्छता को ही सिद्ध करती है, क्योंकि ज्ञान, पद, लब्धि आदि प्राप्त होने पर अहंकार करना तुच्छता है। मनुष्य को चाहिए कि वह जितनी उपलब्धियां प्राप्त करे उतना ही विनम्र बने और आत्म प्रशंसा से दूर रहे।
15. पर-निन्दा नहीं करना – (न परं वएज्जासि अयं कुसीले) प्रत्येक व्यक्ति के पुण्य-पाप अपने-अपने होते हैं। अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही लोग सुख-दुःख भोगते हैं। इसलिए किसी की भी निन्दा नहीं करनी चाहिए। दूसरों की निन्दा नहीं करने वाला लोक में भी सम्मान की अर्हता प्राप्त करता है।
दूसरों की निन्दा करने का एक कारण स्वार्थ की सिद्धि न होना होता है। इससे निन्दक का दुगुना नुकसान होता है, क्योंकि जिस व्यक्ति की वह निन्दा कर रहा है उसे पता लगने पर भविष्य में होने वाले लाभ से भी वह वंचित रह जाता है। वह जिस व्यक्ति के सामने दूसरों की निन्दा करता है वह भी निन्दक का विश्वास नहीं करता, क्योंकि उसके मन में यह तर्क हो सकता है कि 'यह दूसरों की निन्दा मेरे सामने करता है तो क्या गारंटी है कि दूसरों के सामने मेरी निन्दा नहीं करेगा।' इस प्रकार निन्दक व्यक्ति सभी के द्वारा उपेक्षित हो जाता है। इसलिए पर निन्दा को मानसिक अशान्ति का प्रमुख माना गया है।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 131
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