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यह एक सापेक्ष सूत्र है । इसका भाव यह है कि विनीत व्यक्ति वैसे तो किसी का तिरस्कार नहीं करता किन्तु अयोग्य को धर्म में प्रेरित करने की दृष्टि से या उसमें सुधार की दृष्टि से उसका थोड़ा तिरस्कार करता है ।35 जिस प्रकार चिकित्सक रोगी को कड़वी दवा देता है या शल्य चिकित्सा करता है वह उसे कष्ट देने के लिए नहीं, आरोग्य देने के लिए करता है । इसके पीछे द्वेष का भाव नहीं, सेवा का भाव रहता है । उसी प्रकार कठोर शब्दों में तिरस्कार कुछ अपेक्षाओं से हितकर भी होता है। कभी-कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि मृदु शब्द काम नहीं करते। वहाँ यदि हित की दृष्टि से कठोर शब्दों
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प्रयोग किया जाता है तो व्यक्ति पतित होते होते बच जाता है। मुनि रथनेमी की घटना " इसका सुन्दर उदाहरण है। जब रथनेमी का मन संयम से विचलित हुआ और उसने राजीमती के सामने भोग का प्रस्ताव रखा तब राजीमती ने बहुत ही कड़े शब्दों में रथ मी को प्रबोध दिया। रथनेमी को राजीमती ने 'यशकामिन्' से सम्बोधित किया। उस समय यह शब्द रोष में आकर क्षत्रियों के लिए प्रयुक्त किया जाता था ।” तिरस्कार करते हुए राजीमती ने कहा- " धिक्कार है तुम्हें ! जो तू क्षणभंगुर जीवन के लिए वमी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है, इससे तो तेरा मरना श्रेय है । ' 138
ऐसा भी कहा जा सकता है कि यह तिरस्कार रथनेमी का नहीं, उसकी भूल का था, क्योंकि विनीत व्यक्ति दोषी का नहीं, दोष का तिरस्कार करते हैं। दोनों के दृष्टिकोण में बहुत बड़ा अन्तर होता है । सुधार की दृष्टि से भी कहना आवश्यक हो तो इस बात का विवेक रखना जरूरी होता है कि कठोर शब्दों का प्रयोग किसके प्रति हो । विनीत और आत्मार्थी व्यक्ति ऐसे शब्दों को सुनकर पुनः सत्पथ में स्थिर हो जाते हैं, जबकि सामान्य व्यक्ति इसे मन पर ले लेता है। दोष मुक्त करने के लिए शुभ भावों से किए गए तिरस्कार का समर्थन तो है परन्तु आध्यात्मिक और व्यावहारिक दृष्टि से यही उचित है कि यह कार्य मनोवैज्ञानिक ढंग से विवेक पूर्वक ही किया जाना चाहिए। जैसा कि आचार्य श्री तुलसी ने कहा
भूल किसी की देखकर, कहें उसे एकान्त । भाषा मधुर सुझाव की, बोलें होकर शान्त ॥
9. सोच समझकर बोलना ” ( अणुवीइ वियागरे )- समझदार व्यक्ति पहले अच्छी तरह सोचता है फिर बोलता है। अज्ञानी बिना सोचे बोलता है फिर उसे सोचना पड़ता है। इसलिए जब भी बोलना हो तब पहले पीछे का अच्छी तरह चिन्तन कर फिर बोलना चाहिए। बोलने से पहले यह सोचना चाहिए कि वह वचन अपने लिए, दूसरे के लिए या दोनों के लिए कष्टकर तो नहीं है। कहा भी है- 'पुव्विंबुद्धिए पेहित्ता, पच्छा वक्कामुदाहरे'- पहले बुद्धि से सोच कर फिर बोले ।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 131
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