Book Title: Tulsi Prajna 2006 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 59
________________ भोगता है। इस विश्वास से उसमें अपूर्व शक्ति आती है। वह भले ही विपत्तियों से कायल हो जाये, फिर भी दुःख उसको दूसरों की भांति विचलित नहीं करते। मृत्यु भी उनके लिए उतनी महत्त्व की चीज नहीं है, कारण उनका विश्वास पुनर्जन्म में है। आस्तिकता और आदर्श - ईश्वर की पराशक्ति उसकी सर्वोपरि महत्ता उसका सर्वज्ञत्व और उसका सर्व-व्यापकत्त्व आदि बातें भारतीय आत्मा और मस्तिष्क में चिरकाल से बद्धमूल है। स्वयं को ईश्वर के सम्मुख अतितुच्छ समझना भी हमारी आत्मतुष्टि का बड़ा कारण है। भक्ति, सेवा, त्याग, तप, पितृभक्ति आदि आदर्शों के लिए भारतीय जनता युग-युग से संघर्ष करती आयी है। फलत: हमारा व्यवहार पक्ष अविकसित रह गया जो आज प्रत्यक्ष है। भीष्म का जीवनभर का ब्रह्मचर्य और राम का सुदीर्घ वनवास पितृभक्ति आदर्श के ही ज्वलन्त उदाहरण है। गांधी और नेहरू जो कि आधुनिक चेतना से सम्पन्न थे, ने भी अनेक बार अपने आदर्शजीवी होने का परिचय दिया है। श्रमण संस्कृति - भारतीय संस्कृति मूल: अध्यात्म प्रधान और समभाव धारिणी है। इस संस्कृति में सामान्यत: देशी-विदेशी अनेक प्रभाव पड़े, अनेक क्रान्तियाँ आईं, पर इसकी आन्तरिक चेतना को सर्वाधिक प्रौढ़ता, वैज्ञानिकता और मानवीयता से श्रमण धारा ने ही झकझोरा, संवारा और पुनः निर्मल किया।"भारतीय संस्कृति समभाव प्रधान है। इसमें श्रम, शम और सम ये तीन मूल तत्त्व हैं। दूसरे शब्दों में साधना, शांति और समत्व की भावना ही इस देश की संस्कृति के मूल में है। उक्त तीनों बातें ज्ञान की निर्मल अवस्था में ही झलक सकती है।'' ____ वैदिक और श्रमण संस्कृतियां ही देश का सच्चा प्रतिनिधित्व करती है। इन दोनों में ही भारतीय संस्कृति की विराट् प्रतिमा देखी जा सकती है। बौद्धों और जैनों की यह महती देन-श्रमण संस्कृति, भारतीय संस्कृति की अक्षय और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण निधि है। जैन-धर्म मूलतः ज्ञान प्रधान है पर अध्यात्म तत्त्व भी उसमें समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। आज आचार, मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा और भक्ति जो कुछ भी इसमें साधना-मार्ग दृष्टिगोचर होता है वह साधन मार्ग ही है, साध्य नहीं। श्रमण शब्द की आत्मा त्रितात्विक है। वे तत्त्व हैं- श्रम, शम और सम। ये तीनों तत्त्व भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दिशाओं में चरम उपलब्धि के प्रदाता हैं। श्रम - प्रत्येक प्राणी और विशेषत: मानव को ईमानदारी से यथाशक्ति अनवरत श्रम-साधना का आदी होना चाहिए। श्रम से ही जीवन की महानता का उद्भव होता है, जीवन निर्मल होता है, आत्म विश्वास का उदय होता है, अकर्मण्यता और आलस्य का क्षय होता है। श्रम सच्चे सुख का प्रथम और अनिवार्य सोपान है। श्रम के अभाव में किया गया चिन्तन अनिवार्य रूप से वर्गवाद, साम्राज्यवाद, अनाचार और घृणित भोग परम्परा 54 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 131 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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