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आप को परिचित करना संस्कृति है।" अन्य विद्वान् भी अपनी परिभाषा को इस तरह वर्णित करते हैं- "संस्कृति शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण, दृढ़ीकरण या विकास अथवा उससे उत्पन्न अवस्था है।" यह मन, आचार अथवा रुचियों की परिष्कृति या शुद्धि है। यह "सभ्यता का भीतर से प्रकाशित हो उठना है।" इस अर्थ में संस्कृति कुछ ऐसी चीज का नाम हो जाता है जो बुनियादी और अन्तर्राष्ट्रीय है। संस्कृति शब्द का अर्थ संस्कार से है जिसका अर्थ है- संशोधन करना, उत्तम बनाना, परिष्कार-करना। संस्कृत शब्द का भी यही अर्थ है। संस्कार व्यक्ति के भी होते हैं और जाति के भी। जाति के संस्कारों को ही संस्कृति कहते हैं । "भाव वाचक होने के कारण संस्कृति एक समूह वाचक शब्द है।'' ___ श्री करपात्री जी के अनुसार "वेद एवं वेदानुसारी आर्ष धर्मग्रन्थों के अनुसार लौकिकपारलौकिक अभ्युदय एवं निःश्रेयसोपयोगी व्यापार ही मुख्य संस्कृति है और वही हिन्दू संस्कृति अथवा भारतीय संस्कृति है। संस्कृति अन्त:करण है, सभ्यता शरीर है। संस्कृति सभ्यता द्वारा स्वयं को व्यक्त करती है। संस्कृति वह सांचा है जिसमें समाज के विचार ढलते हैं। वह बिन्दु है जहां से जीवन की समस्याएं देखी जाती हैं। डॉ. देवराज लिखते हैं कि हर संस्कृति की अपनी सभ्यता होती है। सभ्यता किसी संस्कृति की चरम अवस्था होती है। सभ्यता संस्कृति की अनिवार्य परिणति है। चर्चित सभी परिभाषाओं का सार यही है कि हमारी जीवन साधना का सार रस ही संस्कृति है, संस्कृति, किसी भी देश या जाति की प्रबुद्ध आन्तरिक चेतना की वह स्वस्थ और मौलिक विशेषता है जिसके आधार पर विश्व के अन्य देशों में उसका महत्त्वाङ्कन होता है।"
सभ्यता का उदयास्त सम्भव है, किन्तु संस्कृति- वह तो अटूट धारा है, अखण्डप्रवाह, उसका विकास सम्भव है, उदयास्त असम्भव। भारतीय संस्कृति की स्थिति भी यही है। वह एक अतल महार्णव है, जिसमें नाना संस्कृति धाराएँ यहां से वहां किस्त दर किस्त आयी है और पूरी तरह घुलमिल गयी है। वस्तुतः वह एक ऐसा घोल है, जिसकी अस्मिता अब सम्पूर्णतः स्थापित हो चुकी है। आज कोई भी संस्कृति ऐसी नहीं है जो अन्य देशों की संस्कृतियों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित न हो। सजीव संस्कृति सदा उदार और ग्रहणशील होती है। संस्कृति भावनामूलक है तथा सभ्यता बुद्धिमूलक है। बुद्धिविकास और विश्लेषणशील है, अत: उसमें अधिकाधिक परिवर्तन की सम्भावना रहती है। भावना में बहुत धीरे-धीरे परिवर्तन होता है। संस्कृति और उसकी मूल चेतना में परिवर्तन आने में शताब्दियाँ लग जाती हैं।
संस्कृति की सबसे पुरानी और व्यापक परिभाषा टाइलर की है जो कि उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण के प्रारंभ में दी गई थी। टाइलर के अनुसार "संस्कृति अथवा
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तुलसी प्रज्ञा अंक 131
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